मेरे अरमान.. मेरे सपने..

बुधवार, 5 जनवरी 2011

प्रेम दीवानी

तुम ..वो ..ऊचाई  हो ...
जिसे छूने के प्रयास मे  -
मै  बार  बार गिरती गई -गिरती  गई -
परत -दर -परत तुम्हारे सामने -
खुलती रही ---बिछती रही -
पर --तुम्हारे  भीतर  कही  कुछ  उद्वेलित नही  हुआ ----|
मेरी आत्म -- स्वकृति को तुमने  कुछ  और ही अर्थ  दे  डाला --?
मै अंधी गुमनाम धाटियो मे तुम्हारा नाम पुकारती रही -----
धायल  !
खुरदरी --पीड़ा -जनक -!!
अकेलेपन  का एहसास !!!
ल--- म्बे  समय  से झेल रही हु ------?
 नाहक ,तुम्हे बंधने की कोशिश ---
" छलावे के पीछे भागने वाले  ओंधे मुंह गिरते है -"
इस तपती हुई मरुभूमि मे ----
चमकती -सी बालू -का -राशि ---
जैसे कोई प्यासा हिरन ,पानी के लिए ----
कुलांचे  भरता जाता है ---                  
अंत--  मे  थककर दम तोड़ देता है ---
राज , ---तुम्हारे लिए --------
इस मरु भूमि मे ---मै भी भटक रही हूँ ----
काश -- कि --तुम ----मिल जाते --------|

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मार्मिक शब्द रचना | धन्यवाद|

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  2. शुक्रिया ,pataliji मेरे 'अरमानो ' मे आने का ----

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  3. आदरणीय दर्शन कौर जी
    नमस्कार !
    क्या बात है..बहुत खूब....बड़ी खूबसूरती से दिल के भावों को शब्दों में ढाला है.

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  4. अंतिम पंक्तियाँ दिल को छू गयीं.... बहुत सुंदर कविता....

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  5. धन्यवाद संजय भास्करजी ,होसला बडाने के लिए | इसी तरह आते रहिए ----अभिनन्दन

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जिन्दगी तो मिल गई थी चाही या अनचाही !
बीच में यह तुम कहाँ से मिल गए राही ......