मेरे अरमान.. मेरे सपने..

सोमवार, 21 नवंबर 2011

औरत एक व्यक्तित्व ....




औरत एक व्यक्तित्व 





औरत  ने जनम दिय मर्दों को ...मर्दों ने उसे बाज़ार दिया !
  जब जी चाहा मसला-कुचला ..जब जी चाहां धुत्त्कार दिया !!



क्या औरत आज भी गुलाम हैं ..?



 हाँ,औरत कल भी गुलाम थी .औरत आज भी गुलाम ही हैं ..
कभी बाप की जंजीरे हैं तो ,
कभी भाई की बेड़ियाँ !
कभी बेटे की हथकड़ी  हैं तो,
कभी पति की गालियाँ !
कभी प्यार से, 
कभी दुलार से, 
कभी डांट से,   
कभी फटकार से ....?


औरत कल भी गुलाम थी औरत आज भी गुलाम ही हैं ?
कहने को तो कहते हैं की --'नारी तू जननी हैं '
फिर क्यों जनने के बाद जन -जन पहुंचाई जाती हैं !
क्यों कभी घर सजाने वाली नाकारा कहलाती हैं --?
क्यों कभी सुख देने वाली कर्कशा कहलाती हैं --?
क्यों दहलीज़ पार करते ही मंडी पहुंचाई जाती हैं ?
क्यों मंडी पहुंचकर अक्सर वो लाचार हो जाया करती हैं ?



औरत कल भी गुलाम थी ...औरत आज भी गुलाम ही हैं ?

 क्या इसी को सीता कहते हैं ?
क्या इसी को दुर्गा कहते हैं ?
जब  दुर्गा  बन पूजी  जाती हैं तो, 
सीता बन क्यों ठुकराई जाती हैं ?
यह मर्दों की दुनियाँ हैं यहाँ --
हर द्रौपदी नचवाई जाती हैं ...






औरत कल भी गुलाम थी ...औरत आज भी गुलाम ही हैं ?
वो लैला बन बदनाम होती हैं ?
वो सीरी बन सर फोडती हैं ?
वो हीर बन जहर पीती हैं ?
वो सोहनी बन डुबाई जाती हैं ?
कभी बेटी बनकर  !
कभी बहन बनकर !!
कभी पत्नी बनकर  !!!
कभी माँ बनकर  !!!!
यहाँ सबको कीमत चुकानी हैं ?
मर्दों से भरी इस दुनियाँ में हर चीज़ बिकाऊ  होती हैं !



औरत कल भी गुलाम थी ...औरत आज भी गुलाम ही हैं ?


कभी खुद की कोई पहचान नहीं ?
कभी खुद की कोई ख्वाहिश नहीं ?
कभी खुद का कोई वजूद नहीं ?
कभी खुद का कोई अरमान नहीं ?.
इक पत्थर हैं रस्ते में पड़ा ..
हर शख्स को ठोकर लगाना हैं ...
इक बिस्तर की शोभा बनकर 
मर्दों का दिल बहलाना हैं 
मर्दों के लिए हर चीज़ का हक  
औरत के लिए सिर्फ एक रस्म  



औरत कल भी गुलाम थी ...औरत आज भी गुलाम ही हैं ?
क्या आसमान पे जड़ा कोइ चाँद  हैं वो ?
जिसे दूर से टिमटिमाना हैं 
क्या हवा का कोई  झौंका हैं वो ?
जिसे सहज ही घुलमिल जाना हैं 
या 
हालत से जूझती कोई कश्ती हैं वो -- 
जिसे हर हाल में पार लगाना हैं ?


औरत की भी कोई हस्ती हैं,इसे सबको आज बताना हैं -- 


मैं गर्द नहीं किसी चौराहे की ?
मैं गुब्बार नहीं किसी दौराहे की ?
मैं औरत हूँ ?
मैं जननी हूँ ?
मैं स्रष्टि  हूँ  ?
मैं पृथ्वी हूँ ?
मैं आकाश हूँ ?
मैं आवरण हूँ इस धरती का 
सब मुझमें समाए हुए हैं 
मैं रचना हूँ किसी कवि की 
मैं तुलिका का रंग हूँ  
मैं  समर्पिता  हूँ साजन की 
मैं सुलगती हुई आग हूँ
मैं ही ठंडी सहस्तधारा  हूँ
मैं खनकता हुआ घुंघरू हूँ ?
मैं ही शांत पड़ी वीणा हूँ ?


मैं औरत हूँ ?


विविध रूप हैं मेरे ?
विविध रंग हैं मेरे ?
मैं महत्वहीन नहीं ?
मैं सहमी हुई गुड़ियाँ नहीं ?
मैं इशारो पर नाचने वाली कठपुतली नहीं ?
मैं जुड़े में लगा गजरा नहीं ?
मैं हाथो का रुमाल नहीं ?
मैं आँखों से गिरा अश्क नहीं ?
मैं आस्मां से कटी पतंग नहीं ?
मैं औरत हूँ ?


यही मेरा अस्तित्व हैं 
यही मेरा व्यक्तित्व हैं !
मैं  इस  स्राष्ठी की एक रचनाकार हूँ .
मैं औरत हूँ ???? 
  



25 टिप्‍पणियां:

  1. गौर करनेवाली बात ये है कि औरत को कमज़ोर पुरुषों ने बनाया या कई बार खुद औरतों ने ! आज भी दृष्टि घुमाई जाए तो शिक्षित महिलाएं , अपने पैरों पर मजबूती से खड़ी महिलाएं भी रोती नज़र आती हैं ... दुहाई ही दुहाई है ! जिनके आगे कोई विकल्प नहीं उनकी बात और है - पर विकल्प के बाद भी कमज़ोर ?

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  2. मैं औरत हूँ ?
    मैं जननी हूँ ?
    मैं स्रष्टि हूँ ?
    मैं पृथ्वी हूँ ?
    मैं आकाश हूँ ?
    मैं आवरण हूँ इस धरती का
    सब मुझमें समाए हुए हैं
    मैं रचना हूँ किसी कवि की
    मैं तुलिका का रंग हूँ
    मैं समर्पिता हूँ साजन की...

    वाह दर्शन जी...सच कह रही है आपकी रचना... बहुत सुन्दर रचना...

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  3. बहुत प्रभावशाली रचना ..सब कुछ समाहित है औरत में

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  4. संगीता जी की बात से सहमत हूँ बहुत ही प्रभावशाली रचना वाकई सब कुछ समाहित हैं औरत में.... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/11/blog-post_20.html

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  5. बहुत प्रभावी और बेहतरीन रचना

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  6. मैं कडवे सच के बारे में कुछ नहीं कहूँगा, जो लिखा बहुत ही सच्चा लिखा है।

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  7. गहरी प्रभावशाली अभिव्यक्ति ....
    कुछ कडवी सी मगर सच्ची ...
    शुभकामनायें आपको !

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  8. दोनों पक्ष रखकर अच्छा किया । अब कोई विसंगति नहीं रही ।
    सुन्दर प्रयास ।

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  9. अच्छा लिखा है पर इसके अलावा इक कडुवा सच ये भी है कि नारी कि सोचनीय दशा के लिये पुरुष से ज्यादा नारी ही जिम्मेदार है.........

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  10. @ यह सच हैं की आज नारी ही नारी की स्थिति के लिए जुम्मेदार हैं ...और शायद प्रकृति भी ...?

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  11. रशिम प्रभा जी की यह टिपण्णी किसी कारणवश पोस्ट न हो सकी----

    " गौर करनेवाली बात ये है कि औरत को कमज़ोर पुरुषों ने बनाया या कई बार खुद औरतों ने ! आज भी दृष्टि घुमाई जाए तो शिक्षित महिलाएं , अपने पैरों पर मजबूती से खड़ी महिलाएं भी रोती नज़र आती हैं ... दुहाई ही दुहाई है ! जिनके आगे कोई विकल्प नहीं उनकी बात और है - पर विकल्प के बाद भी कमज़ोर ? "
    सत्य उजागर करती हुई --?

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  12. @संजयजी धन्यवाद !
    @संध्याजी धन्यवाद !

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  13. @संगीताजी सही कहा औरत में ही सब कुछ समाया हुआ हैं

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  14. @रेखा जी धन्यवाद
    @पालवी जी धन्यवाद

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  15. @ सतीश जी धन्यवाद ..काफी दिनों बाद दर्शन हुए आपके....

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  16. @ महेंदर जी धन्यवाद
    @सागर जी धन्यवाद
    @मोनिका जी धन्वाद

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  17. @धन्यवाद डॉ. साहेब ..कुछ लिंक से अलग लिखने की कोशिश हैं यह ..

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  18. @ सही कहा संदीप कडवा हैं पर सच हैं ?और हमें इसे मानना ही चाहिए ...

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  19. क्या इसी को सीता कहते हैं ?
    क्या इसी को दुर्गा कहते हैं ?
    जब दुर्गा बन पूजी जाती हैं तो,
    सीता बन क्यों ठुकराई जाती हैं ?
    यह मर्दों की दुनियाँ हैं यहाँ --
    हर द्रौपदी नचवाई जाती हैं ...

    AAKROSH SE PARIPOORN, JAAGRIT KARNE WALI KAVITA.

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  20. ek umada rachna.... beshak ye alag baat hai ki is tathya se sahmat nahi hoon....:)
    aaj ki mahila kahan nahi hai........ kyon khud ko hi aap bediyon se jakra hua mahsoos karte ho..
    aap socho na ... aisa hota to aapko ham padh pate:)

    aapke shabd anmol hain aise:)

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जिन्दगी तो मिल गई थी चाही या अनचाही !
बीच में यह तुम कहाँ से मिल गए राही ......