तुम ..वो ..ऊचाई हो ...
जिसे छूने के प्रयास मे -
मै बार बार गिरती गई -गिरती गई -
परत -दर -परत तुम्हारे सामने -
खुलती रही ---बिछती रही -
पर --तुम्हारे भीतर कही कुछ उद्वेलित नही हुआ ----|
मेरी आत्म -- स्वकृति को तुमने कुछ और ही अर्थ दे डाला --?
मै अंधी गुमनाम धाटियो मे तुम्हारा नाम पुकारती रही -----
धायल !
खुरदरी --पीड़ा -जनक -!!
अकेलेपन का एहसास !!!
ल--- म्बे समय से झेल रही हु ------?
नाहक ,तुम्हे बंधने की कोशिश ---
" छलावे के पीछे भागने वाले ओंधे मुंह गिरते है -"
इस तपती हुई मरुभूमि मे ----
चमकती -सी बालू -का -राशि ---
जैसे कोई प्यासा हिरन ,पानी के लिए ----
कुलांचे भरता जाता है ---
अंत-- मे थककर दम तोड़ देता है ---
राज , ---तुम्हारे लिए --------
इस मरु भूमि मे ---मै भी भटक रही हूँ ----
काश -- कि --तुम ----मिल जाते --------|
5 टिप्पणियां:
बहुत मार्मिक शब्द रचना | धन्यवाद|
शुक्रिया ,pataliji मेरे 'अरमानो ' मे आने का ----
आदरणीय दर्शन कौर जी
नमस्कार !
क्या बात है..बहुत खूब....बड़ी खूबसूरती से दिल के भावों को शब्दों में ढाला है.
अंतिम पंक्तियाँ दिल को छू गयीं.... बहुत सुंदर कविता....
धन्यवाद संजय भास्करजी ,होसला बडाने के लिए | इसी तरह आते रहिए ----अभिनन्दन
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