मेरे अरमान.. मेरे सपने..


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गुरुवार, 31 मार्च 2011

मुझसे न पूछो कौन हूँ मै !





          





मुझसे न पूछो कौन हूँ मै ?
मै हर क्षण बदलने वाला व्यक्तित्व हूँ 
मेरा रूप हर क्षण बदलता रहता है --
कभी उजला -उजला -सा नाम हूँ तो ,
कभी सहमी हुई ,
डरी हुई, आवाज हूँ --
कभी महत्वहीन हूँ ,
कभी समर्पिता हूँ  --
तो,कभी इशारों पर चलने वाली कठपुतली !
मेरे विविध रूप है --
कभी उबली हुई जलधारा हूँ---तो --
कभी ठंडी सहस्त्र धारा--
कभी मन की उथल -पुथल से विचलित हूँ ,तो 
कभी भार ढ़ोने वाली काया  ! 
कभी खनकते घुंघरू हूँ तो ,
कभी शांत पड़ी वीणा के तार,
कभी खिलोना हूँ खेलने वाला ,
कभी रुमाल  हूँ हाथ पोछने वाला,




मुझसे न पूछो की मै कौन हूँ --
मेरा अस्तित्व क्या है ,
मेरा व्यक्तित्व क्या है ,
अस्पष्ट है मेरा बसेरा ,
किसी की छाया में छिपा हुआ --
मेरा वजूद है --
कौन हूँ मै --
आसमान से कटी पतंग हूँ .
या --
आँख से गिरा अश्क हूँ .
या-- 
प्याले से छलक गई शराब हूँ .
या-- 
रास्ते में भटक गई प्यास हूँ .


कौन हूँ मै ?       



सोमवार, 28 मार्च 2011

दिलकश चाँद !


दिलकश  चाँद !







 " चलो दिलदार चलो 
  चाँद के पार चलो "

तुम्हारी चमकती आँखों में छांककर पूछती--
और तुम अपनी मदमस्त आँखों को घुमाकर कहते --

" हम हैं  तैयार चलो "--

और मैं  ख़ुशी के हिंडोले में सवार 
दू.....र... आकाश में अपने पंख पसार 
बादलो से परे,
चाँद की पथरीली जमीं पर,
उड़ते -उड़ते घायल हो चुकी हूँ ,
अपने लहू -लुहान जिस्म को समेटे ,
कातर निगाहों से तुम्हे धूर रही हूँ  ,
और तुम दू....र खड़े मुसकुराते हुए,
मानो,मेरा मजाक उड़ा रहे हो---

"  चाँद को छूने वाले ओंधे मुंह जो गिरते है "








मैं  सोच रही हूँ  की यह चाँद दूर से कितना ,
हसीन !कितना दिलकश था !
क्यों मैने इसके नजदीक जाने का साहस किया !                      





तुम भी तो ' राज' ! 
उस चाँद की तरह हो ,
जिसे मैं  देख तो सकती हूँ  ,
पर छू नही सकती ----?





अपने तन -मन को घायल कर --
आज सवालों के घेरे में खड़ी हूँ  --!

दू......र से आवाज आ रही हैं  -- 

" आओ खो जाए सितारों में कहीं 
छोड़ दे आज ये दुनिया ये जमीं  " 

चलो दिलदार चलो 
चाँद के पार चलो 
हम हैं तैयार चलो ~~~~~~~!

रविवार, 27 मार्च 2011

एक माँ की पुकार (maa)



रोज खबरों में पढती हु की आज फलाना बेटे ने 'माँ ' को मार दिया , आज जला दिया , आज हाथ काट दिए--आज घर से निकाल दिया--- सुनकर रोगंटे खड़े हो जाते है :-   









माँ की  ममता का नही है मोल 
जिन  नोनीहालो  को---
सरेआम वो बदन जला रहे है 
जिस माँ ने उनको जन्म दिया 
अपना खून पिलाकर जवान किया 
आज वो उसके खून के प्यासे नजर आ रहे है !

बेअदब ! बदतमीज ! कीड़ो की तरह 
इस समाज में गंदगी फेला रहे है 
क्यों मैने इन्हें जन्म दिया ?
क्यों मैने इन्हें खून दिया ?
क्यों वो आज मेरे ही दुश्मन नजर आ रहे है !

जिन राहो पर मैने उन्हें चलना सिखाया 
उंगली पकड़ दोड़ना सिखाया  
आज 'उन्ही' हाथो को काट के 'कड़े' ले जा रहे है ! 
तहजीब ! तालीम ! नकार दी उन्होंने 
रब से डरना छोड़ दिया --
या खुदा !अब तू ही इन्साफ कर 
इन गन्दी गलियों के शहंशाहो पर 
क्यों ये अपनी जिन्दगी तबाह कर रहे है !

मै तो माँ हु सिर्फ दुआ ही दे सकती हु 
क्यों बे-परवाह है ये तेरे बने मोहरे ?
क्यों जलाते है ये अपनी ही जन्मदायी को ? 
क्यों बिठाते है ये कोठो पे अपनी ही बहनों को ? 
क्यों बेचने पर विवश है ये अपनी ही बीबियो को ?
क्यों अपनी ही जिन्दगी को नरक बना रहे है !

ऐ खुदा !तू ही इन्साफ कर 
इन बदनसीबो पर तेरा कहर नजर आ रहा है !
क्यों सारे नोजवान आज 'कसाव ' बने फिरते है 
आज क्यों मुझे इन पर तरस आ रहा है !  
      

शनिवार, 26 मार्च 2011

तपोभूमि श्री हेमकुंड साहेब ( 6 ) Hamkund saheb ( 6 )





  




















        गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसाने घाऊ !!
       खेत जु मांडियो सूरमा अब जुझन को दाऊ !!
 सूरा सो पह्चानिओ जु लरे दीन के हेत !!
             पुरजा - पुरजा कटी मरे कबहू न छाडे खेत !!      





(एक युग पुरुष गुरु गोविन्द सिंह जी )



14 सितम्बर 2008


सुबह 6 बजे नींद खुली --कल वापस गोविन्द धाम आने पर मै जो सोई तो रात को 11 बजे नींद खुली--देखा सब सो रहे थे --भूख बड़ी जोर से लग रही थी क्योकि कल हलवे के अलावा पुरे दिन कुछ नही खाया था--अच्छा खासा उपवास हो गया था --पास में कुछ बिस्कुट और मेवे पड़े थे उनसे ही अपनी    अतृप्त भूख मिटाई!चलो बाम्बे से लाए बिस्कुट आज काम आ ही गए --


सुबह सबने उठाया तो नींद खुली --सब तेयार हो रहे थे--हम भी फटाफट गर्म पानी से नहा लिए --नीचे गुरूद्वारे मै माथा टेका --ऊपर जो पर्ची कटाई थी उसका प्रसाद नीचे मिलता है ,प्रसाद लिया और चल पड़े यहाँ से --


घोड़े वाला आ गया था उस पर बैठ गए --मैने कहा -एक घोड़े का फोटो हि खीच ले ,तुरंत घोड़े वाले ने हमारी एक तस्वीर खीच ली :- 



( वापसी )

धुप खिल रही थी --पर ठंडक थी --वापसी में बड़ा आनंद आया --न डर न चिंता ,जब इच्छा होती घोड़े पर बैठ जाते ,जब थक जाते तो पैदल चलने लगते --जाते समय जो द्रश्य देखने से वंचित रह गए थे अब उनका खूब मज़ा ले रहे थे -- एक जगह हम सब हिम गंगा नदी के अन्दर चले गए -वहाँ बड़ा मज़ा आया -पहले फोटो देखे बाद में बात बताउगी :-




(रेखा मै और विमला पीछे हिम नदी )


(मै विमला और रेखा )




(ठंडे पानी की बोछारे पानी बड़ा तेज है )



( विमला और मै )


हुआ यु की हम पैदल चलते -चलते इस पुल पर पहुंचे --थोड़ी मस्ती करने का मन हुआ -पहले मै कूदी नदी के पास फिर विमला आई ,रेखा ऊपर ही खड़ी थी --हमने खूब पानी फेका फेकी की --स्वेटर उतार दिए थे हम मस्ती कर हि रहे थे की कुछ आदमी चिल्लाए --'बीबी जल्दी ऊपर आ जाओ ' हम धबरा गए --पानी काफी तेज था हम फटाफट पत्थरों पर चड़कर ऊपर आ गए --अभी हम खड़े हि थे की अचानक हमारे देखते -देखते पानी वहा तक आ गया जहा से हम चड़े थे --एक झुर झुरी सी हुई यदि हम वही पर होते तो कब के तेज धार में बह गए होते --पानी बहुत तेजी से नीचे बह रहा था --कान पकडे --?

 नदी और नालो का कोई भरोसा नही होता कब बहने लगे --कब कोई पत्थर सरक जाए और पानी का स्त्रोत बह निकले -पहाड़ी नदी से सावधान !

(गोविन्द घाट पहुँचने से पहले थोडा सुस्ता ले ) 


12 बजे तक हम नीचे गोविन्द घाट तक आ गए थे --पहले सोचा 'फूलो की घाटी'चलते है पर 13 किलो मीटर और घोड़े पर बैठ कर पहाड़ चड़ना फिर पैदल भी सफ़र करना बच्चो का काम नही था --कोई जाने को तेयार नही हुआ - फिर हमें बद्रीनाथ भी जाना था और हमारे पास आज का ही दिन था सो ,फूलो की घाटी केंसल की और हमने नीचे उतर कर पहले खाना खाया फिर वाहन की तलाश में निकल पड़े --




(फूलो की घाटी का एक दुर्लभ चित्र )
( गूगल से )




(दुर्लभ फूल )


(ये फूल आपने कही नही देखे होगे )



(ये फूल वहाँ भरे पड़े है )

फूलो की घाटी हि नही अपितु सारे पहाडो पर ऐसे फूल बिछे हुए है मानो प्रकृति ने गलीचा बिछा रक्खा है हर रंग का तालमेल है--

सबसे पहले घर वालो को खेरियत की खबर दी --आज तीन दिन हो गए थे

नीचे उतर कर हमने आराम नही किया --फटाफट जिसको चलना था उसे तेयार किया -हमारा सामान लाक था --चड्डा सा. आए नही थे --हमने उनका इन्तजार न करके सीधे बद्रीनाथ चल दिऐ--

हम कुल 8 लोगो ने मिलकर एक जीप की 800 रु में आने-जाने के लिए जीप मिल गई--सबको 100 रु. का शेयर आया कोई बुरा नही था --जीप वाले ने हमारे साथ एक हवलदार भी कर दिया -वो बढ़िया लड़का था हमारा अच्छा मनोरंजन किया -- 


(बदरीधाम का एक विहंगम द्रश्य )
(चित्र < गूगल जी से )




(शायद यही नर और नारायण पर्वत है )
(चित्र <गूगल से )






बद्रीधाम का इतिहास:--

बदरीधाम को धरती का मोक्ष कहा जाता है -पुराने जमाने में लोग जब इसकी यात्रा पर निकलते थे तो समझा जाता था की अब यह आखरी यात्रा पर जा रहे है पता नही वापसी होगी या नही ?क्योकि उस समय यातायात के साधन नही थे लोग पैदल ही यह यात्रा सम्पूर्ण करते थे-- 
   
बद्रीधाम नर और नारायण पर्वतों के मध्य स्थित है यह समुद्र तल से 10,276 फीट  उंचाई पर स्थित है --अलकनंदा नदी इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है --इस मन्दिर में 15 मूर्तियाँ है -भूस्खलन के कारण यह मन्दिर बार -बार क्षतिग्रस्त होता रहता है--और दुबारा इसका निर्माण होता है --भगवान् विष्णु का यह मन्दिर चारधामों में से एक है --इसकी स्थापना 8 वी शताब्दी में श्री आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी -उन्होंने भारत के चारो कोनो में चार -धाम स्थापित किये थे--उतर में बदरीधाम दक्षिण में रामेश्वरम,पश्चिम में द्वारका और पूर्व में जगन्नाथ पूरी !इसके क्षतिग्रस्त होने के बाद इसका निर्माण गढ़वाल राजाओ ने करवाया -यहाँ तृप्तकुण्ड अलकनंदा नदी के किनारे ही स्थित है --जो गरम पानी का कुण्ड है --मन्दिर में प्रवेश करने से पहले सब यहाँ स्नान करते है पानी बहुत गरम रहता है --ओरतो के लिए अलग से कुंड की व्यवस्था है - यह मंदिर हर साल अप्रेल - मई में खुल जाता है और नवम्बर के आखरी सप्ताह में बंद होता है--- 


हम २बजे बद्रीविशाल के लिए निकल पड़े--२ धंटे का सफ़र था-- रास्ता बहुत अच्छा है --पर पहाड़ कच्ची मिटटी के बने है छोटे -छोटे गोल -गोल पत्थरों के पहाड़ है जो ज्यादा बारिश में बह जाते है-- इस समय मिटटी उड़ रही थी --आगे एक आकस्मिक पुल था जो मिलिट्री ने वहां लगाया था लोहे का यह पुल फोल्डिग होता है इमरजेंसी में मिलिट्री यूज करती है -


हमारे साथ जो हवलदार आया था उसने बताया की पिछली बार यहाँ बादल फट्टा था तो इस नदी पर पास वाला पहाड़ गिर गया था जिससे नदी ने रुख बदल लिया है इसलिए अब दूसरा पुल बनने तक यह लोहे का पुल ही इस्तेमाल होगा पर वहाँ का द्रश्य देखते बनता था -- क्या कारीगिरी है उस बनाने वाले की -शब्दों में बयाँ नही कर सकते --
आखिर हम बदरीधाम पहुँच ही गए




(बद्रीनाथ का मंदिर )

(बदरीधाम में मै और विमला )




( मै ,विमला और रेखा बाकी अंदर थी )


हमने सबसे पहले पुल पार करके बद्री विशाल के मंदिर में प्रवेश किया--पुल से नीचे नदी का द्रश्य बहुत लुभावना था -- वहाँ गरम पानी का कुण्ड था पहले स्नान करने चला जाए पर कपडे तो थे नही नहाते केसे !फिर किसी ने कहा की सुबह तो नहाए थे चलेगा कुछ चतुर लोग बोले -' चुन्नी लपेट कर नहा लेते है ' फिर यही कपडे पहन लेगे|अब चारा कोई और नही था --हमने दरवाजा बंद किया और बाल्टी भर -भर के गरम पानी से खूब नहाए --पानी काफी गरम था --यार,ये उतराखंड भी अजब है --कही इतना ठंडा पानी की पुश्ते भी हिल जाए और कही इतना गरम की हाथ जल जाए --खेर ,नहाने से सारी थकान भाग चुकी थी-- और हम 'फ्रेश' हो चुके थे --'जय बद्रीविशाल '!


प्रशाद की थाली खरीदी यहाँ पके चावल तथा चने की दाल का प्रसाद चडाया  जाता है-- प्रसाद लेकर हम अन्दर चल पड़े --भगवान् विष्णु की बेहद खूब सूरत मूर्ति थी यह पाषण शिला से निर्मित है-- यह डेढ़ फुट ऊँची मूर्ति है जो पध्मासन की योग मुद्रा में बैठी है -यहाँ दक्षिण भारत के नम्बूदिरिपाद ब्राह्मण पुजारी होते है-ये आजीवन ब्रह्मचारी होते है --जब पट बंद हो जाते है तो यह अपने गाँव चले जाते है -पट बंद होने पर बद्रीविशाल की पुजा अर्चना जोशिमठ में होती है ---


यहाँ से साढ़े 3 किलो मीटर आगे माणा गाँव है जो भारत का आखरी गाँव है  यहाँ सप्त बसु ,गणेश गुफा ,भोजवासा ,रूपकुंड ,तृप्त कुंड ,नारद शिला अनेक दार्शनिक स्थल है --  नारद शिला वह जगह है जहां बद्री विशाल की यह मूर्ति पाई गई थी --         


हमारे पास टाइम कम था इसलिए ज्यादा धूम नही सके --थोड़ी देर बाज़ार में घुमते रहे कुछ सामान घर वालो के लिए खरीदा थोड़े से अखरोट भी खरीदे --यादगार रहनी चाहिए --1-2 कंवल भी खरीदे -कभी -कभी भूले भटके बाम्बे में भी ठंडी पड़ जाती है --
    
6 बजे हम वापस चल पड़े --क्योकि फिर अँधेरा होने पर रास्ता बंद हो जाता है और हमे वहा रुकना नही था सो जल्दी ही खिसकने में अपनी भलाई समझी --रास्ता बड़ा सुन्दर तो है पर खतरों से भरा पड़ा है --रास्ते के लुभावने झरने देखते -देखते कब गोविन्द घाट आ गए पता ही नही चला -- 


रात को बहुत दिनों बाद ऐसी आराम भरी नींद आई --सुबह सारा समान समेटा और चल दिए हेमकुंड साहेब को बाय -बाय कर के--बस स्टाप पर गर्म गर्म पकोड़ो का नाश्ता किया --

आज ही हम ऋषिकेश पहुंच जाएगे --रास्ते में बस में बेठे हुए अब डर नही लग रहा था क्योकि हम सकुशल घर जा रहे थे ----


(घर सकुशल जाने की ख़ुशी )



( पिछे ऋषिकेश का गुरुद्वारा )
( रात को हम ११ बजे ऋषिकेश पहुंचे )

(कुछ गणमान्य लोग हमारी टीम के )

(बाए से हरपाल सिंह सेठी केशियर, नर्स हरजीत, विमला, मै, निशा, चड्डा साहेब और प्रन्सीपल साहिबा गुरमीत  ) 

(इस तरह समाप्त हुई एक यादगार यात्रा )




अगली बार एक नए सफ़र पर **** धन्यवाद  मेरा साथ देने के लिए --



सोमवार, 21 मार्च 2011

तपोभूमि श्री हेमकुंड साहेब ( 5 ) Hemkund saheb ( 5 )


             हेमकुंड वासी,दुष्ट दमन सर्वस्व दानी 
             श्री गुरु गोविन्दसिंह जी को समर्पित---!




(तपस्या में लींन गुरु गोविन्द सिंह साहेब )



गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपनी रचना 'विचित्र नाटक' में  हेमकुंड साहेब का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है --उन्होंने यह बात खुद बताई है  :---

                                       "अब मै अपनी कथा बखानो ||
                                                         तप साधत जिह बिधि मुहि आनो ||
                                       हेमकुंड परबत है जहां ||  
                                       सपत् श्रिंग सोभित है तहां ||१|| 
                                      सपत् श्रिंग तिह नामु कहावा ||
                                      पांडूराज जह जोगु कमावा ||
                                      तह हम अधिक तपसिया साधी || 
                                      महांकाल कालका अराधि ||२|| 
                                      इह विधि करत तपसिया भयो ||  
                                       देव ते ऐक रूप हैव गयो ||  
                                       तात मात मुर अलख अराधा ||
                                       बहु बिधि जोग साधना साधा ||३||
                                       तिन जो करी अलख की सेवा ||                            
                                       ता ते भऐ प्रसन्नी गुरुदेव ||
                                       तिन प्रभ जब आइस मुहि दिया ||
                                       तब हम जनम कलू महि लीया " ||४|| 

(अर्थात :- अब मै अपने पूर्व-जनम का वर्णन करता हु--जहां मैने तपस्या  कि थी वहां एक हेम (बर्फ ) कुंड (तालाब ) है --सात् ऊँची -ऊँची चोटिया है उस स्थान को सप्तश्रृंगी कहते है --वहां पांड्वो के राजा ने भी तप किया था --उस स्थान पर मैने कड़ी तपस्या की और प्रभु की आराधना की --उसी प्रभु अकाल -पूरख की आज्ञा से मैने इस कलयुग में जनम लिया है--अकाल पुरख की आज्ञा है की मै सत्- मार्ग पर चलू और सच्चे धर्म का प्रचार  करू--और दुष्टो का नाश करू ---मै इस जगत में भूले हुए लोगो को सत् का मार्ग दिखलाने आया हु  ---)                    

 13सितम्बर 2008       

रात को एक हैरत अंगेज वाकिया हुआ--हुआ यू  की हमारे जत्थेदार चड्डा सा. की पत्नी नीशा जो एक मुस्लिम महिला है पर उन्होंने सिक्ख -धर्म  अपना लिया है ;वह पैदल ही सफर कर रही थी --उनकी कोई मन्नत थी जो पूरी हो गई थी इसलिए वो गोविन्द -घाट से गोविन्द -धाम पैदल ही चल रही थी --उनसे भी ज्यादा चला नही जाता हे --हुआ यू की --वो धीरे -धीरे चल रही थी --रुक रुक कर बड़ी मुश्किल से रास्ता तेय हो रहा था --ज्यादातर लोग २ या  ३बजे तक ऊपर चढ़ जाते है क्योकि उसके बाद अँधेरा घिर आता है --पहाडो पर दिन जल्दी ढलता है --फिर एक बजे के बाद बारिश भी हो गई --जब तक हम पहुँच भी गए थे --वो बड़ी मुश्किल से ऊपर चढ़ रही थी --मार्ग में कोई भी नजर नही आ रहा था --उसे बुखार भी चढ़ गया --ठंडी भी बड गई थी --एक चट्टान पर वो थककर बैठ गई --रोने लगी --अचानक गोविन्द -घाम  की तरफ से एक आदमी चलता हुआ आया -काफी लम्बा -चोड़ा आदमी था --उसने नीशा को एक टेबलेट दी पानी दिया -उसके सर पर हाथ रक्खा और बोला --'पुतर जल्दी चढ ,देर हो गई है '
इतना कह कर वो तेज -तेज कदम से ऊपर चढ़ गए --वो देखती रही --अचानक उसमे जोश आ गया और वो तेजी से ऊपर चढने लगी --कुछ दूर चलने के बाद चड्डा सा. दिखाई दिए जो उसी को ढूंढते हुए वापस आ रहे थे साथ में घोड़े भी लाए थे --जब उसने वो बात चड्डा सा. को बताई तो उन्होंने कहा की मुझे तो कोई भी आदमी नही मिला सारा रास्ता सुनसान पड़ा है; आश्चर्य हे की वो आदमी कोन था--?

पर मुझे पूरा विशवास है की वो और कोई नही हाजरा हुजुर गुरु गोविन्द सिंह जी खुद उसकी मदद करने आए थे --जब भी कोई वहां मुसीबत में होता है तो वो उसकी मदद करने आ ही जाते है --ऐसा मेने सुना था पर आज देख भी लिया --

रात के १० बजे जब नीशा को लाया गया तो उसका सारा बदन ठंडा था --वो होश में तो थी पर ठंड से ठिठुर रही थी --रात को ही डॉ. को बुलवाकर उसे इंजेक्सन लगाए और  नींद की गोली खिलाई -- फिर हम सोए --                               


(गोविन्द -धाम गुरूद्वारे का गेट )




(गोविन्द धाम का बाज़ार )

रात को देर से नींद आई--पर सुबह ६  बजे हम उठ भी गए --आज होटल वाला हमे एक बाल्टी गरम पानी दे गया--एक बाल्टी का 30 रु.  --खेर नहाना हो गया -- इतनी दूर हम जिसके दर्शन करने आए है उसके आगे तो ये नगण्य है --हम फटाफट तैयार होकर नीचे आ गए-आज नाश्ता नही करना है --दर्शन करने के बाद ही कुछ खाएगे--ऐसा सब ने कहा है --    



( रास्ते में पड़ी बर्फ )



(ऊपर चढने  वाला रास्ता )



(खूब सूरत द्रश्य घोड़े से लिया चित्र )




मोसम दिलकश हो गया है --धुप खिल चुकी है --पर यहाँ का मोसम क्षण -क्षण बदलता रहता है --15000 फुट ऊँचाई वाले इस पर्वत पर सर्दियों में वर्षा नही होती केवल हिमपात होता है --कई बार तो ऐसा लगता है की मेघ नीचे  ही आकर बैठ गए है --यहाँ 40 फुट से अधिक बर्फ जमती है यह दुनिया का सबसे ऊँचा मंदिर गिना जाता है --वेसे गुरूजी का तपो स्थान और भी ऊपर गुफा में है पर वहां जाने नहीं दिया जाता है --लेकिन कुछ नोजवान वहाँ भी चले जाते है --  

   


(दसो गुरुओ  के साथ श्री हेमकुंड साहेब )



श्री हेमकुंड साहेब का इतिहास:--

हेमकुंड साहेब के बारे में खुद गुरु गोविन्द सिंह जी ने दसम ग्रन्थ के विचित्र -नाटक के छटवे अध्याय में लिखा है :-

उनकी लिखी बातो को वाहेगुरु का आदेश मान कर भाई वीरसिंह जी 
अमृतसर वाले ने इस तपो भूमि की खोज करवाने का प्रयत्न किया --उन्होंने कई पहाड़ी राज्यों पर खोजा पर सफलता नही मिली --
सन १९३२ में पंजाब के तारा सिंह जी नरोत्तम बदरीनाथ की यात्रा पर आए थे उनके साथ कुछ लोग और थे --वापसी में वो लोग इस पहाड़ी पर चढने लगे तो निरोत्तम जी ने पूछा की--'यहाँ क्यों जा रहे हो 'तब उन्हेंने कहा की 'हम लोकपाल की यात्रा हेतु जा रहे है !' तारासिंह जी भी शामिल हो गए --
ऊपर जाकर उन्होंने देखा की यह स्थान तो हु -ब-हु विचित्र नाटक से मिलता है --वहा की सम्पूर्ण जानकारी लेकर वो भाई वीरसिंह जी के पास अमृतसर आए और उन्हें बतलाया --
भाई वीरसिंह जी ने संत सोहन सिंह जी और हवलदार मोदनसिंह जी को खोज करने भेजा --दोनों गाँव भंडार पहुंचे --वहां से इस ऐतिहासिक पवित्र जगह का दर्शन किया --सरोवर में स्नान किया -और वापस भंडार गाँव आ गए --इस तरह हेमकुंड साहेब की खोज हुई--तीर्थ यात्री इस पर्वत की प्राकृतिक सुन्दरता का अनमोल द्रश्य देखने आते है --घाटी पार करके जब मैदान  में आते है तो मुह से 'वाह -वाह' का शब्द निकल पड़ता है --सरोवर इतना दिलकश है की आप सारा दिन वहां बैठ सकते हो --यहाँ का मोसम हमेशा बदलता रहता है --कभी धुप निकल जाती है तो कभी बादलो से घुंघ जम जाती है --यहा  ४० फुट से अधिक बर्फ जमती है  जो बहुत कठोर होती है --इस सरोवर से एक नदी भी निकलती है जिसे 'हिम- गगा कहते है -- 


                        
(रास्ते में मिला एक दुर्लभ ब्रह्म कमल )  

हम सुबह ६बजे निकले थे और ९बजे तक हेमकुंड साहेब भी पहुँच गए --केसे पहुंचे हम ही जानते है --क्योकि आगे का रास्ता इतना 'खड़ा' है की पसीने ला दिए --आँखों से आंसू बह रहे थे की जिन्दा भी जा सकुंगी  या नही क्योकि एक तो ७५ किलो वजन उस पर घोड़े बेचारे इतना वजन उठाकर ऊपर खड़ी चढाई चढ़ रहे है --नाक से गरम सांसे निकल रही है --इन मासूमो पर मुझे बहुत दया आई --वेसे भी जानवरों से मुझे बेहद  लगाव है --मेने उसका नाम राजा रख दिया --जब प्यार से राजा कहकर हाथ फेरती तो दुने उत्साह से चलने लगता--आखिर जेसे तेसे मै पहुँच ही गई:--


(हेमकुंड साहेब का मनोरम द्रश्य )


जब हेमकुंड साहेब के द्वार खुलते हे  तो संगत झंडा साहेब की सेवा करती है
(चित्र = गूगल ) 


( बैंड-बाजे के साथ महाराज की सवारी आती है और प्रकाश होता है ) 
(चित्र = गूगल ) 

(हेमकुंड साहेब का प्रवेश द्वार )


(हेमकुंड साहेब बदलो से लिपटा हुआ )


चारो और धुंध  हो रही थी --स्पष्ट कुछ दिखाई नहीं दे रहा था --सुबह का समय है, यह सोचकर हम गुरु द्वारे के नीचे बने स्नानागार (बाथरूम )में नहाने चल दिए --ठंडी के मारे मेरा वेसे ही बुरा हाल था उस पर सरोवर के पानी ने कयामत ढाह  दी-एकदम बर्फ का पानी !कही लकवा न मार जाए मै थोडा डर गई --क्योकि पानी के ऊपर बर्फ भी तेर रही  थी --कई बुजुर्ग महिलाए भी नहा रही थी बोली -'बीबी डर न वाहेगुरु का नाम ले और डुबकी मार ले सब फते होगी '! मेरा डर थोडा कम हुआ फिर भी मैने रेखा से कहा तू पहले नहा ले मै बाद में नहाउगी ;रेखा बेचारी वेसे भी दमे की बिमारी से तंग थी फिर भी वो कपडे समेत डुबकी लगा आई --अब मेरी बारी थी सो ,कूद पड़ी मैदाने जंग में--एक बाल्टी डाली ही थी की सारा शरीर गर्म हो गया -न ठंडी न बर्फ !आराम से सबके नाम की एक -एक बाल्टी डालती रही --वाहेगुरु ने सब खेर कर दी --

स्नान कर हम पहले माले पर बने गुरूद्वारेसाहेब  में गए --१० बजे की अरदास में हाजिरी लगानी  थी  --यहाँ हर आधे घंटे में अरदास होती है --ताकि कोई ज्यादा देर यहाँ रुके नही क्योकि यहाँ आक्सीजन की कमी से प्राब्लम हो सकती है --अंदर एकदम गर्मी थी और नीचे कंवल बिछे थे --ओड़ने के लिए भी कंवल पड़े थे यदि ठंडी लगे तो ओड़ भी सकते हो -- सुबह से भूखे थे इसलिए दोना भर कड़ा प्रसाद गटक गई --कुछ पेट की ज्वाला शांत हुई --यहाँ लंगर नहीं होता है सिर्फ चाय बनती है और मीठी खिचड़ी भी ! पानी भी हमको गर्म मिला पीने को,बाहर मोसम साफ था --हमने चाय पी--लोग सेवा कर रहे थे --सूखे मेवे बाँट रहे थे --हमने भी नंबर लगा लिया --पास में ही लोकपाल लक्षमण जी का मन्दिर है ,वहाँ चल दिए --       


( गुरूद्वारे का अंदर का द्रश्य )



(गुरूद्वारे के अंदर संगत का हुजूम )

         
(जेंट्स बाथरूम यानी नहाने का स्थान )



( रेखा और मै बाहर का नजारा देखते हुए ) 
(ठंडी बड़ी है कभी भी बारिश हो सकती है )

(लक्षमण मन्दिर )


(अन्दर से लक्षमण मन्दिर )


गुरुद्वारा हेमकुंड साहेब १९६७ मे प्रारम्भ हुआ था --२० वर्ष में कम्प्लीट हुआ गुरूद्वारे की कमिटी ने ही लक्ष्मण मंदिर का भी निर्माण करवाया है  --यहाँ तक आने का मार्ग नही था लोग पत्थर और झाडियो को पकड़कर चट्टाने लांधकर ऊपर चडते थे(कितना मुश्किल होगा ) यह मार्ग १९४३ से शुरू हुआ है और हर  साल बनता रहता है --पत्थरों के गिरने से काफी क्षति होती है--पहले लोग ऋषिकेश तक ही बस से आते थे फिरआगे का  पैदल रास्ता था -सड़क मार्ग बाद में बना है ---

यहाँ सप्तश्रंगी पर्वत की सात चोटियाँ है जो सप्तऋषियो  के रूप में विराजमान है और कहते है की तपस्या में लींन  है--यहाँ गुरु नानक देव जी ने भी तपस्या की है --ऐसा इतिहासकार कहते है -- लेकिन मै सतगुरु का कोटि -कोटि धन्यवाद करती हु -जिसकी क्रपा से मैने पूर्व जन्म के कलगीधर के तपोस्थान की यात्रा की-- शायद मेने  भी कोई पुन्य काम किया था जिसकी बदोलत मुझे कुछ दिन का ही सही उनका सानिन्य  प्राप्त हुआ  --और दर्शन का सोभाग्य मिला --आज मेरा नाम सार्थक हुआ है |   

यहां कई दुर्लभ सुगन्धित जड़ी -बूटीया पाई जाती है --इन के पत्ते पीले नही होते और न ही सूखते है --इनकी खुशबु यहाँ व्याप्त रहती है  --  


अचानक मुझे साँस लेने मै परेशानी होने लगी --शायद भूखे पेट इतना हलवा खाया था या सचमुच वहाँ आक्सीजन की कमी थी, पता नहीं --
पास ही गुरूद्वारे का क्लिनिक था -मै अंदर गई अंदर एक जवान डॉ बैठा था उसने कहा --' तुसी नीचे उतर जाओ आंटी जी - सब चंगा होगा'  मेरा ब्लड प्रेशर चेक किया और मुझे दवा भी दी  --एक खुराक तो मेने वही खा ली --अब समस्या यह थी की मै नीचे केसे उतरु --नीचे उतरना बड़ा जोखिम भरा लगा --कमर मै दर्द हो रहा था --घोड़े पर पीछे झुक कर बैठना पडेगा जो मुझ से नही हो पा रहा था --मेरी हालत ख़राब हो रही थी --रेखा भी परेशां --हमारी टीम का कोई सदस्य नजर नही आ रहा था --सब नीचे उतर गए थे --

मेने तो आन्नद साहिब का पाठ करना शुरू कर दिया--जिसे मै अक्सर करती रहती हु --पर यहाँ मेने थोडा ज्यादा ही किया है --थोड़ी देर बाद मैने देखा की एक मरियल -सा ठिगना नेपाली आदमी हमारे पास आया उसके पास टोकरी थी जिसमे वो बच्चो को बिठाता है- बोला --' मेडम जी मेरे साथ चलो,मै आपको नीचे उतार दूंगा ' मै कभी उसको कभी अपने आप को देख रही थी --वो ४० किलो भी नही ;मै  डबल!केसे मेरा वजन उठाएगा  ! गिरा दिया तो  ? हड्डियां भी समेटना मुश्किल हो जाएगा --

पर वो पुरे इत्मीनान से मुझे देख रहा था --मेने हां कर दी -फिर घोड़े  वाला भी बोला की आपसे भी ज्यादा वजनी लोगो को ये उठा लेता  है आप परेशान न होवे--रेखा ने पूछा -' कितने पेसे लोगे ,बोला जो इच्छा हो दे देना वेसे मै १ हजार लेता हु आपसे कम ले लूँगा '---मैने रेखा से कहा यार दे दे जान है तो जहांन है--' आखिर मै ५०० रु. पर वो मान गया ..मैने सच्चे पातशाह को धन्यवाद दिया हमेशा वो मेरे कोल रहते ही  है --आप भी इस तमाशे को देखे---(हंसना मना है )


( बच्चे की जान लेगी क्या ! )

टोकरी मै बड़ा मज़ा आया --चुपचाप आँखे बंद किए मै बैठी रही --मन ही मन पाठ करती रही --जेसे ही एक पहाड़ी उतरी सांसे भी नियमित चलने लगी --रेखा और घोडा साथ साथ चल रहे थे --यह फोटू घोड़े वाले ने ही खीचा है --नीचे उतरने वाले मुझे देख मुसकुरा रहे है -- नीचे आकर बड़ी कोफ़्त हो रही है --क्योकि धुप तेज है स्किन जल रही है और टोकरी मै तो सीधी सूरज की किरणे आ रही है--ऊपर कितना अच्छा माहोल था पर कहते है न पापी इन्सान की स्वर्ग में क्या जरूरत ! पर  मेरे पूर्व जन्म के फल थे या इस जन्म के पुन्य मुझे इस कठिन यात्रा का सोभाग्य मिला -- 


२-३ जगह टोकरी वाले ने मुझे उतरा चाय पी फिर चल दिए --नींद आ रही थी शायद डॉ ने मुझे नींद की गोली दी थी --
सकुशल नीचे होटल में लाकर उसने मुझे छोड़ दिया --इस तरह मेरी हेमकुंड -यात्रा की प्यास खत्म हुई --

आगे की यात्रा बाकी है ---मिलते है बदरी विशाल में --

    
जारी -

रविवार, 20 मार्च 2011

गुजर गई होली ( Holi )

** होली **
  
 
(जलने का इन्तजार )

(ओर फिर जल गई होली )  



(होली है !!!)

कल होली का दिन था भाई 
सबने मिलजुल कर हुडदंग मचाई 
टीटू साथ  टुन्नी भी आई 
'शेडो ' पर भी मस्ती छाई 


(जोड़ी रहे सलामत टीटू और टुन्नी की !)


(शेडो की होली )

(शेडो ने भी क्या धूम मचाई )

रोज नही आते ऐसे रंगारंग त्यौहार 
होली के उत्सव में आए लोग हजार 
आए लोग हजार ,सबने हमको रंग डाला 
कह दर्शन कविराज,रोज होलिका आए 
होली के हुडदंग मै दुश्मनी सरपट जाए 
रहे प्यार ही प्यार ,खुशियाँ हिल्लोरे खाए 
अगले साल दुबारा ये दिन जल्दी-जल्दी आए  

(काम्प्लेक्स में होली की बहार ) 

(ऊपर से लिया चित्र नन्हे -मुन्नों का )

(कल चाँद भी अपने पुरे शबाब पर था )


** सभी का आभार **