मेरे अरमान.. मेरे सपने..


Click here for Myspace Layouts

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

जीवन की चाह ......






जीवन की इस रेल -पेल में ..इस भाग दौड़  में 
जिन्दगी जैसे ठहर -सी गई थी ...
कोई पल आता तो कुछ क्षण हलचल होती ..
फिर वही अँधेरी गुमनाम राहें ,तंग गलियां ...
रगड़कर ..धसिटकर चलती जिन्दगी ...

वैसे तो कभी भी मेरा जीवन सपाट नहीं रहा ..
हमेशा कुछ अडचने सीना ठोंके  खड़ी ही रही ..
उन अडचनों को दूर करती एक सज़क पहरी की तरह 
मैं हमेशा धुप से धिरी जलती चट्टान पर अडिग ,
अपने पैरों के छालो की परवाह न करते हुए --
खुद ही मरहम लगाती रही  .....?

निर्मल जल की तरह तो मैं कभी भी नहीं बहि..
बहना नहीं चाहती थी ,यह बात नहीं हैं ..
पर मेरा ज्वालामुखी फटने को तैयार ही नहीं था ?
अपनी ज्वाला में मैं खुद ही भस्म हो रही थी ...
न राख ही बन पाई न चिंगारी ही ...







सिर्फ दहक रही थी उसकी प्रेम -अगन में  ..
उसके प्रेम -पाश से मोहित हो ..
खुद से ही दूर र्र्र्रर्र्र्र होती जा रही थी ..
मैं जानती थी की ये मोह की जंजीरे व्यर्थ हैं ..
अब, कुछ भी शेष नहीं ?????
पर, फिर भी मन के किसी कोने में एक नन्हीं -सी आस बाकी थी -
आस थी तो विश्वास भी था  ....
जबकि हर बार विश्वास रेत के घरोंधे की तरह बिखर जाता था ..
हर बार टूटता ....???
मैं हर बार टूटने से बचाने में जुट जाती  ....?



वो हर बार मेरे घरोंधे को एक ही झटके में तोड़ देता ..?
थप्पड़ मारना शायद उसकी प्रवृति बन चूका था ..
जिसे वो एक अमली जामा पहना देता था ..?
उसका अहम् था या उसके बनाए कानून , मुझे नहीं पता ?
पर हमेशा मेरा प्यार उसके आगे धुटने टेक देता था ..
 तब मेरा मन कहता ---

"अगर वो मेरा बन न सका तो ,
मैं उसकी बन जाउंगी .."

 और मैं  पुल्ल्कित हो उठती ..
फूलो की तरह खिल जाती ...
पर वो कठोर पाषण  बना "ज्यो -का - त्यों " पड़ा रहता ....!






उसने अपने चारों और एक कोट खड़ा कर रखा था ...
उस किले को भेदना नामुमकिन ही नहीं असम्भव भी था ..
पर, अक्सर मैं उन दीवारों के छेदों से झांक लेती थी ..
जहाँ वो अपनी चाहत की अंतिम साँसे गिन रहा था .....
मुझे देखकर भी वो अनदेखा कर जाता था ..?
क्योकि वो जानता था की मेरी मुहब्बत की शिला बहुत मजबूत हैं ..
जो किसी छोटे -मोटे भूकम्प के झटको से तहस -नहस नहीं होने वाली ....?





पर वो न जाने क्यों ??????
अपने ही बनाए हुए नियमो को ढोने में व्यस्त था ....
इस बोझ से उसके कंधे दुखने लगे थे ,मैं जानती हूँ ---
पर वो हमेशा मुस्कुराता रहता था ..!
कई बार उसे विष -बाणों से गैरों ने लहुलुहान भी किया  ..
पर वो सहज बना अपना रास्ता तैय  करता रहता था  ...
सबके दिलो पर उसका राज चलता था ..
खूबसूरती का तो वो दीवाना था ..?
पर मेरी तरफ से वो सदा ही उदासीन ही रहा ....!


 कई  बार उसकी उदासीनता से हैरान मैने अपना दामन झटक लिया ..
पर वो बड़े प्यारे से अपने दंश से मुझे मूर्छित कर देता ...
और मैं वो प्रेम रूपी हाला पी जाती ..
फिर एक कामुक नागिन की तरह बल खाने लग जाती ..
 फुंफकारने लगती !!!!!
तब वो शिव बन मेरा सारा हलाहल पी जाता ..
मेरा फन कुचल देता ..
और मुझे एक नए चौगे में  परिवर्तित कर देता ...
जहाँ मैं फिर से घसीटने को तैयार हो जाती ......!




उस पाषण से दिल लगाने की कुछ तो सजा मिलनी चाहिए थी मुझे .....????



मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

एक 'कील' हूँ मैं **?









असम्भव की गहरी खाई में गिरी हुई ****
एक 'कील' हूँ मैं ***  ?
साधारण ***
जंग लगी ***
खुद से ही टूटी हुई **
थकी ???
 कमजोर !!!

तुम्हारा  तनिक -सा सपर्श ,,,
मुझे जिन्दगी दे सकता हैं प्रिये !









मुझे उठाकर अपने कॉलर पर सजा लो ****
मैं फूल बनकर खिल जाउंगी !
मुझे उठाकर अपने पहलु में सुला लो ****
 मैं प्रेमिका बनकर लिपट जाउंगी !
मुझे उठाकर अपने सीने में छिपा लो ****
मैं याद बनकर छिप जाउंगी !
मुझे उठाकर अपने प्याले में ढाल लो ****
मैं नशा बनकर छा जाउंगी !
मुझे उठाकर अपनी राह का हमसफ़र बना लो ****
 मैं राह के रोड़े हटा कलियाँ बिखरा दूंगी!
मुझे उठाकर सर का ताज बना लो ****
मैं दुनियां को तुम्हारे क़दमों में झुका दूंगी !





मैं तुम्हे सपनों के हिंडोले में बैठकर ,
तीसरी दुनियां की सैर करवाउंगी !
मैं तुम्हारे क़दमों में आँचल बिछा कर, 
तुम्हें कांटो से बचाउंगी !
मैं तुम्हें मन -मंदिर का देवता बनाकर, 
दिनरात तुम्हारी पूजा करुँगी !
मैं तुम्हें अपना सर्वस्त्र देकर, 
अमर -लता की तरह लिपट जाउंगी !
मैं तुम्हारी ख्वाहिश में ही अपना मंका ढूंढ कर ,
तुम्हारे साथ ही बह जाउंगी !











नजर नहीं आती मुझे कोई मंजिल ?
डोल रही हैं मेरी किश्ती भंवर में,
अगर तेरे प्यार का सहारा मिल जाए तो, 
इस 'जंग' लगी 'कील' का जीवन संवर जाए ...


"तुम्हें अपना बनाना मेरे प्यार की इन्तेहाँ होगी ?
तुमसे बिछड़ना मेरे जीवन की नाकामयाबी ??  " 

  

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

पहाड़ो का शहर ...









पहाडों पर दूर तक जमी बर्फ----
सनसनाती हुई हवाऐ----
हड्डियों को कंपकपाती हुई ठंड----
पेंड़ो से गिरते पत्ते----
 घाटियों में गूंजती आवाजें ---.
और कल -कल बहती नदी का शोर ----

तेरी याद दिलाने के लिए काफी था ----!
जब तेरी तस्वीर उठाकर देखी तो---
ओंस की कुछ बूंदे पड़ी थी---- 
गिला -गिला अजीब -सा नज़ारा था ?
जैसे अभी रोकर उठी हो ???
मेरी उन खोई हुई आँखों में ..
एक पल को उदासी तैर गई---!


ऐसी वीरान ! ठहरी हुई जिन्दगी तो मैनें कभी नहीं चाही थी ----?
फिर क्यों चला आया मैं यहाँ सबकुछ छोड़कर ---
पहाड़ों पर मेरा दम निकलता हैं, ऐसी तो बात नहीं-----?
पर यहाँ का सन्नाटा--- !
अकेलापन ----!
तीर की तरह चलती ठंडी हवाएं ---- !
मेरे कलेजे को चीरती हैं ----!






मैं उदास अपने हाथो को जोड़े होटल की बालकनी में खड़ा हूँ---
           दूर ~~क्षितिज में हिमालय की चोटियों पे बर्फ चमक रही हैं---
मानो किसी के सर पर चांदी का ताज जड़ा हो----!


और मैं खोज रहा हूँ अपनी गुजरी हुई जिन्दगी ---
"जहाँ सब मेरे अपने थे "
जहाँ खुशियाँ थी ? खिलखिलाहटे थी ? दोस्त थे ?
-----और तुम थी ?

क्यों आ गया मैं इस अजनबी शहर में----?
इस पत्थरों के शहर में ,
जहाँ चारों और पहाड़ ही पहाड़ हैं----
आवाज देता हूँ तो पत्थरों का सीना चीर कर लौट आती हैं ----


हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा
तेरी खनकती हुई हंसी !!!
जैसे मेरे कानों में शहद टपक रहा हो ----?
अभी बोल उठेगी ---"कहाँ हो, मेरी जान"
"यही हूँ, तुम्हारे पास " मैं कह उठूँगा !


अचानक मेरा चेहरा विदूषक हो उठा---
लगा ही नहीं की वो यहाँ नहीं हैं----?


मैं सहज ही उसकी मुस्कान में बंधा हुआ !
उसके बांहों के धेरे में सिमटा हुआ !!
   उसके चेहरे की कशिश में लिपटा हुआ !!!
मदहोश -सा बहा जा रहा हूँ ----
काश, तू होती ????
इन हसीं वादियों में ----
हम हाथों में हाथ डाले घूमते- फिरते----
तुम मुझ पर बर्फ के गोले मारती---
मैं तुम्हें  पकड़ता ..भागता ..चूमता----
तुम हंसती हुई भाग खड़ी होती और --
मैं तुम्हें प्यार से निहारता रहता---
इन ठंडी रातों में---
हम मालरोड पर घूमते----
ठंडी - ठंडी आइसक्रीम खाते ---
कभी ठंड से बचने के लिए---
सड़कों पर जलते अलावो पर हाथ सकते ----??? 
 चर---र्र --र्र  ---र्र-- र्र---र --


अचानक ! किसी गाडी की जोरदार आवाज से तन्द्रा भंग हुई 
मैनें चौंककर देखा ---'तू नहीं थी' ?
"अरे कहाँ गई अभी तो यहीं थी "?
मैं पागलों की तरह चारों और ढूंढता रहा --
"पर वो जा चुकी थी "


और मैं अकेला सुनसान सड़क पर खड़ा  था ---
उसका इन्तजार करता हुआ ---
मुझे पता हैं --"वो नहीं आएगी"
पराई जो हो गई हैं न वो ?