मेरे अरमान.. मेरे सपने..


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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

मेरे गुरु की नगरी~श्री हजूर साहेब--पार्ट -1.


तख़्त श्री सचखंड साहेब  'नांदेड ' 

गुरुद्वारा --सचखंड   

"किसी भी कौम का इतिहास उस कौम का आधार होता हैं अतीत में खो चुकी अहम धटनाओ को इतिहास अपने आप में समेटे हुए रहता हें --इसी इतिहास में से मार्ग दर्शन लेकर उस समय के महा पुरुषो के द्वारा दिए गए ज्ञान के आधार पर कौम का भविष्य बनता हें और नई  दिशा लेकर ही हम लोग उच्चतम जीवन प्राप्त करते हें --"


तख्त श्री हजूर साहेब नांदेड (महाराष्ट्र ) में स्थित हैं --यह पवित्र स्थल 10वे गुरुगोविंद सिंह जी के अंतिम स्थल में शामिल हें ,जहाँ वे ज्योति में विलीन हुए थे --


10 सितम्बर 2011 


मैं  अपनी सहेली रेखा के साथ सुबह 6.30 को दादर पहुंची --हमें वहाँ से 'तपोवन -एक्सप्रेस' पकडनी थी --यह गाडी बाम्बे से सीधी नांदेड ही जाती हैं --बड़ी ही खटारा ट्रेन हैं --केवल सिटीग  होने  के  कारण यह 12 घंटे  की यात्रा बेहद उबाऊ और थका देने वाली थी --वैसे रास्ता इतना दूर नहीं था पर सिंगल लाईन होने के कारण गाडी हर स्टेशन पर रुक जाती थी --पर रास्ते की द्रश्यावली बेहद खुबसुरत थी ---कब टाइम निकला पता ही नहीं चला ...फिर सहेली जो साथ थी ----'जहाँ चार यार मिल जाए ......  वही रात हो गुलज़ार ......वाह !




(रेखा और मैं  --दादर स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार में चाय  पीते हुए ) 

(बाम्बे में भी  आप हिल -स्टेशन का मज़ा ले सकते हो ) 


  
(सुबह का माहौल--- बहता हुआ पानी क्या कहने )


(खुबसूरत झरने )


( ईगतपूरी -----बाम्बे का हिल स्टेशन )


( हम पहाड़ के ऊपर और हमारे निचे एक और रेलवे लाइन )
यह लोनावाला को जाने वाली लाइन हैं  




( धुंध में लिप्त प्रकृति की यह सुंदर चादर) 


(पेंड़ो से  झांकता 'थम्ब -गिरी' )


(इसे कहते हें ---थम्ब- गिरी --यानी अंगूठे  के आकर वाला पर्वत ) 


" सुहाना -सफ़र और ये मोसम हंसी "
गर्मी  बहुत थी --पर हवा ठंडी थी 


( कल -कल बहती नदियाँ )


" वादियाँ मेरा दामन ---रास्ते मेरी बाहें "
 यह  कसारा  - घाट  कहलाता हैं  


( ये कौन चित्रकार हें ----ये कौन चित्रकार) 


(हरी- भरी वसुंधरा को तुम निहार लो   )




इस प्रकृति के आलौकिक दर्शन करते हुए हम परम आनंद की खोज में चल दिए --हुजुर साहेब की और ----




(यह हैं --नांदेड साहेब का रेलवे -स्टेशन ) 




जब हम गुरुद्वारे पहुंचे तो शाम के छः बज रहे थे --वहाँ गुरुद्वारे की गाड़ियाँ खड़ी थी जो हर यात्री को गुरूद्वारे ले जा रही थी --- हम भी बैठ गए --चार साल पहले जब आई थी तब के और अब के माहौल  में काफी अंतर आया हैं --इन चार सालो में यहाँ कई चेंजेस हुए हैं --आप गुरूद्वारे को चलेगे तो लगेगा की  कही और आ गए हैं --साफ  सुधरी सड़के ---खुबसुरत बगीचे और रहने को आलिशान इमारते जो गुरुद्वारों की हैं ---जहां तक निगाहें  जाती हैं सब जगह गुरुद्वारों के गुम्मद ही दीखते हैं --एकदम स्वप्न सा लग रहा हैं -- हम गुरूद्वारे के आफिस में पहुंचे रूम के लिए ---400  रोज में  एक ऐ. सी. रूम लिया -- वैसे  यहाँ फ्री के रूम भी मिलते हैं पर वो नार्मल होते हैं ऐ. सी. नहीं होता हैं --पर उनमे भी हर सुविधा होती हैं  --कुछ पैसे वो जमा करते हैं बाद में लौटा देते हैं --- 




( यह हैं सामान्य कमरे यानि फ्री के रूम  --- 'गुरुद्वारा -लंगर साहेब में )


(रात का नजारा ---गुरूद्वारे का )


गुरुद्वारे  के बाहर बगीचे में रंगीन फव्वारे चलते हुए 
गुरुद्वारे के चारो और रहने के कमरे --इन्ही में से एक में हम भी ठहरे हुए थे 

( गुरूद्वारे का ऐ. सी. रूम )

रूम में आकर हम नहा-धोकर तैयार होकर चल दिए बगीचे में घुमने को --बाहर रंगीन फव्वारे चल रहे थे -बहुत खुशनुमा माहौल था ---कीर्तन की सुर लहरिया चल रही थी --माहौल में भक्ति और मस्ती दोनों फैली हुई थी ---लोग फोटो खेंच रहे थे --सारी थकान छूमंतर हो गई थी --शरीर में एक नई उर्जा संचार हो गई थी  -- हमे भूख लगने लगी थी --सुबह से कुछ नहीं खाया था --हमने सबसे पहले 'लंगर -हाल ' को ढूँढा -- आखिर वो हमें मिल ही गया ---और हमने छक कर लंगर खाया --


(  लंगर -हाल  )


(अभी खीर आनी हैं --पर मुझे बहुत भूख लग रही हैं --मैं इन्तजार नहीं कर सकती ) 



(यह हैं लंगर -हाल को साफ़ करने वाली गाडी )





(रेखा और मैं ----फाउन्टेन का मज़ा लेते हुए )


(रात का शमा झूमे चन्द्रमा --मन मोरा नाचे रे जैसे बिजुरिया ) 




(वाह !-------ब्यूटीफूल फाउन्टेन )  


(आराम के मूढ़ में --आखिर बुढ़ापा दस्तक देने लगा --हा हा हा हा ) 




(नींद  बहुत आ रही हैं ----अब चलते हैं सोने )


अब सोने जाते हैं --खटारा  गाडी ने सारे कल -पुर्जे ढीले कर दिए --  बाकी कल ...कल हम आस पास के कई  ऐतिहासिक गुरुद्वारे देखेगे---  गुड नाईट !  अगली किस्त में -------जारी !








गुरुवार, 22 सितंबर 2011

-गोल्डन टेम्पल अमृतसर भाग -5





गोल्डन टेम्पल भाग -5





"गुरु गोविन्द सिंह जी ने ग्रन्थ साहेब को अंतिम गुरु का दर्जा दिया "






गोल्डन -टेम्पल का भाग ४ पढने के लिए यहाँ क्लिक करे 


सुबह बहुत बारिश थी ---मानो अमृतसर में बाढ़ आ गई हो --सारा बाज़ार बंद था ...गाडियां बंद थी ..धुटने -धुटने पानी भरा था --हम लाल माता के दर्शन कर दोपहर में चल दिए --जलियांवाला बाग़ देखने --पानी अब भी बरस रहा हैं और हम मस्ती करते हुए --कुछ भीगते हुए चले जा रहे हैं जलियांवाला बाग़   में----

इतिहास :--




जलियांवाला बाग़ तीनो और से दीवारों से धीरा हें --13 अप्रेल 1919 को वहां ब्रिटिश सरकार की नीतियों और रालेट एक्ट के खिलाफ शहर के लोग सभा कर रहे थे  -- जिसमें जनरल दायर नामक एक अंग्रेज आफिसर ने  अकारण उस सभा में उपस्थित भीड़ पर गोलियां चलवा दी जिसमें 1000 से भी अधिक लोग मारे गए और 2000 से भी ज्यादा लोग जख्मी हुए इस  निहत्थी   भीड़ पर अंग्रेजो की फौज ने अन्धाधुन्ध  गोलियां चलाई --कई निरीह बेकसूर आदमी शहीद हो गए ---जिनमें कई मासूम बच्चे भी थे --
इस हत्याकांड के विरोध में रविंदरनाथ टैगोर ने अपनी 'सर' की उपाधि लौटा दी थी --और सरदार उधम सिंह ने लन्दन जाकर जनरल डायर को गोलियों से भुन दिया था  -- 


(यह हैं जलियाँवाला बाग़ का प्रवेश द्वार ) 


( खुबसुरत बगीचा )


इतना खूबसूरत माहोल --चारो और हरियाली --मानो प्रकुति भी उन बेगुनाहों को थपकी देकर सुला रही हो --शांत और तल्लीन वातावरण .. 




(अमर ज्योति --1961 को निर्माण हुआ )


शहीदों की याद में 

(शहीदों की याद में वो पल जो गुजर गए )

सन्नी के पीछे जलियांवाला बाग़ का एक हैरत अंगेज द्रश्य --जहा तक निगाहें जाती हैं --लाशें ही लाशे पड़ी हुई नजर आ रही हैं ....

(उस समय का खोफ्नाक मंजर --बेरहम ब्रिटिश शासको का कहर  )





(लहू -लुहान पड़े बेगुनाह लोग--ऐसा लगता हैं मानो अभी -अभी कोई बम विस्फोट हुआ हो  )

(यह हैं रत्ना देवी छज्जू भगत ) 


" रत्नादेवी  छज्जू भगत का आँखों देखा बयान "


मैं जलियांवाला बाग़ के समीप अपने धर में थी --जब मैने गोलिया चलने की आवाज सुनी --मैं तुरंत उठ कर बैठ  गई --मुझे चिंता हो गई --क्योकि मेरे पति भी बाग़ में गए थे --मैं दो स्त्रियो को साथ ले बाग़ में पहुंची --वहाँ मैने लाशो के ढेर देखे --मैं उन लाशो में अपने पति को ढूढने लगी--मुझे उनकी लाश मिल गई ---चारो -और खून -खून ही पड़ा था -----    



(  क्रपिया --इसे जरुर पढ़े ) 


(सरदार उधम सिंह जी )





सरदार उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। उधमसिंह के माता -पिता बचपन में ही चल बसे थे -- उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। उधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। सन 1919 का 13 अप्रैल का वो काला दिन, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं थी और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया था ।इस धटना से उधमसिंह के मन में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति नफरत पैदा हो गई --उन्होंने जनरल से बदला लेने की कसम खाई और उसे ढूंढते  हुए लन्दन पहुँच गए --वहाँ 1940 को जनरल डायर  को मारकर अपनी कसम पूरी की --और जलियांवाला बाग़  के हत्या कांड का बदला लिया ---आज मेरी तरफ से इस महा नायक को श्रधांजलि ...




(सरदार उधम सिंह जी की जीवनी )


मदन लाल धींगरा ---1881--1909



   
(उनकी जीवन यात्रा )






(यहाँ से खड़े होकर गोलिया चलवाई गई थी )



(शहीदी कुआ ----यहाँ से कई लाशे  निकाली गई )





( आज भी यहाँ गोलियों के निशान हैं )




(ये गोलियों के निशान अपनी कहानी आप कह रहे हैं )






(बारिश का कहर ---बदस्तूर जारी हैं -- बारिश में भीगते यह शब्द जय हिंद  कितने अच्छे लग रहे हैं ) 


( खुबसुरती  में चार चाँद लगाते यह अक्षर--धरती माँ की वंदना  ) 



" रिमझिम के तराने लेकर आई बरसात 
     याद आए किसी से वो पहली मुलाक़ात "


"जिन्दगी -भर नहीं भूलेगी ये बरसात की शाम "





( अतुल और सन्नी --बरसात का मज़ा लेते हुए )



१९९२ का एक पुराना चित्र --जब मैं पहली बार अपने परिवार के साथ यहाँ आई थी ..





एक प्रार्थना स्थल --जहाँ कई लोग मारे गए थे 



( सन 2003 को जब मैं अपने परिवार के साथ दूसरी बार यहाँ आई थी----- 



(बारिश बंद हो गई थी --और सड़को  का पानी निकल चूका था )




शाम हो चली थी --बारिश भी बंद थी --हमने अमृतसर की फेमस 'बढ़िया ' पापड़ 'और आचार खरीदा जो हमे वही  जलियांवाला बाग़ के सामने ही मिल गए--यहाँ बादाम भी सस्ते ही मिले --कपडे लेने की इच्छा थी पर बारिश की वजय से मार्किट बंद था --हम पैदल ही हरमिंदर साहेब की और चल पड़े --सारे कपडे गिले थे और ठंडी भी लग रही थी --एक जगह भीड़ देखि तो वहाँ चल पड़े --वो एक जलेबी की दूकान थी --गर्म -गर्म जलेबी देखकर मेरी तो नियत खराब हो गई ---     


( जलेबी की दूकान )




(जलेबिया बन रही हैं --अमृतसर की जलेबी  बहुत फेमस हैं )



  
(वाह ! क्या बात हें ---मुंह में पानी आ गया न !!!! )



जलेबी देखकर दो जाट पुत्रो ( संदीप - नीरज ) की याद आ गई ---उनकी मन पसंद जलेबी जो थी --मैने अतुल से कहा --'चल अतुल गरमा -गरम जलेबी खाते हैं '  बहुत ही   टेस्टी रस से भरी कुरकुरी जलेबी थी --हमारे बाम्बे में तो ऐसी जलेबी के दर्शन दुर्लभ ही हैं  -- आधा किलो जलेबी हम तीनो चट कर गए --बाद में सन्नी और अतुल ने गुलाब जामुन भी खाए और लस्सी भी पी --पर मैंरी तृप्ति तो जलेबी ने ही पूरी कर दी थी ----


( रस से भरे गुलाब जामुन  सन्नी और अतुल के फेवरेट )


(पंजाब की लस्सी की बात ही वखरी हैं जी )

शाम को अतुल अपने घर सोनीपत चला गया --अब हमे भी अपना सामान समेटना था --आज हमे भी जाना हें !  


(यह हैं अतुल के साथ  मेरी आखरी फोटू ----बाय !)




सामान से लड़ी हुई दुकाने 


(सिक्ख धर्म से सम्बन्धित पुस्तके और तलवारे व् कटारे )






रात को हमने बिदा किया अमृतसर को --और चल पड़े स्टेशन की और --


अगली कड़ी हुजुर साहेब (नांदेड)  महाराष्ट्र ---