मेरे अरमान.. मेरे सपने..


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मंगलवार, 21 जुलाई 2020

जीवन कि अभिलाषा


जिन्दगी के इस तीसरे पहर में ---
जब मुझे तुझसे प्यार हुआ!

तो महसूस हुआ मानो जलजला आ गया हो !
और मुसलाधार बारिश उसे शांत कर रही हो !
मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व मानो निखर गया हो !
मेरे जीवन का कोई सपना जैसे साकार हो गया हो ....!!!

जब तेरी गुदाज़  बांहों में मेरा जिस्म  आता हैं ____
तो यू लगता है मानो मृग को कस्तूरी का भान  हुआ हो !
और वो कुलांचें भर इधर -उधर दौड़ रहा हो ! 
जैसे कस्तुरी की चाह में कुछ  खोज रहा हो ..!!!!

तब तेरे जलते हुए होंठ मेरे प्यासे होठों को  छूते है,
तेरा  अस्तित्व मेरे समूचे व्यक्तित्व को निगलता है, 
तब रगों में दौड़ने वाला रक्त अमृत बन जाता है,  
तब मदहोशी का यह अमृत मैं घूंट -घूंट पीती हूँ ..!!!

तब प्यासी लता बन मैं तेरे तने से लिपट जाती हूँ,
 तुम मुझे अपनी बांहों में समेट लेते हो,
तब मेरी अनन्त  की प्यास बुझने लगती है, 
और मैं तुम्हारी बांहों में दम तोड़ देती हूँ --!!!!

तब मेरा नया जनम होता है 
एक बार फिर से -----
तेरे सहचर्य का सुख भोगने के लिए ---- ?

----दर्शन के दिल से

सोमवार, 20 जुलाई 2020

दिसम्बर की रात

#दिसम्बर की रात 


दिसम्बर की वो एक ठंडी रात थी।
जब हम हाथों में हाथ लिए,
#मालरोड की ठंडी सड़क पर
बातों में खोए चले जा रहे थे ।
मुझे याद है -----
तब तुमने अपने #पराये होने की सूचना दी थी!
कितना रोइ थी मैं उस समय;
तब मेरे #ठिठुरते हुए लबों पर 
तुमने अपने गर्म होठ रख दिये थे ,
तुम्हारी बांहों के धेरे में 
मैं कसमसाकर रह गई थी।
तब मैं आवाक मूर्ति बनी---
तुम्हारी बातों को, 
कानों में शीशे की तरह उड़ेल रही थी।
क्या उस समय तुम पाषण नही बन गए थे?
तुम्हारे ह्दय के उदगार कहाँ लुप्त हो गए थे।
कितना मार्मिक संवाद था वो ?
मेरी आँखों से अश्रु की धारा बहे जा रही थी।
ओर तुम तल्लीनता से अपनी होने वाली का विवरण बता रहे थे।
ऐ काश ! उस समय मैं होश में होती?
निर्दयी ! मैं अपने आंसू दिखा पाती ?
आज इस सुनी सड़क को 
अल्पक निहार रही हूं---
दिसम्बर की ठंड बढ़ती जा रही है 
ओर मैं थके - थके कदमों से, 
अपने नीड़ पर लौट रही हूं --------

---दर्शन के💝 दिल से

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

अमृतसर की यात्रा भाग 7


अमृतसर यात्रा भाग-7
(किरतपुर साहिब)
1जून 2019

28 मई को मैं ओर मेरी सहेली रुक्मणि बम्बई से अमृतसर गोल्डन टेम्पल ट्रेन से अमृतसर को निकले..रतलाम  में मेरी भाभी भी आ  गई ...तीसरे दिन 30 मई को सुबह 6 बजे हम सब अमृतसर पहुँच गये,अमृतसर अच्छे से घूमकर आज सुबह हम अमृतसर से निकलकर माता चिंतपूर्णी के बाद माता ज्वालादेवी के दर्शन करके हम रात को आनंदपुर साहिब आये, रात हमने आनंदपुर साहिब में ही गुजरी,सुबह हम विरास्ते खालसा देखकर अब किरतपुर चल दिये, अब आगे...

"किरतपुर साहिब:---

कीरतपुर को किरतपुर साहिब के रूप में भी जाना जाता है...यह रूपनगर जिले के पंजाब राज्य में स्थित हैं, इस शहर में  गुरुद्वारा पातालपुरी नाम का वो स्थान है जहाँ सिख-पंथ के अनुयायी अपने दिवंगत परिजनों की अस्थियों को विसर्जीत करते हैं। 

9वें सिक्ख गुरू, गुरू तेग बहादुर सिंह जी को मुगल बादशाह औरंगजेब ने दिल्ली में मरवा दिया था तब गुरूजी के धड़ को एक भक्त अपने झोपड़े में ले गया था और झोपड़े को जलाकर अपने गुरु का  अंतिम संस्कार किया था। उधर एक अन्य भक्ति गुरुजी के सर को अपनी गाड़ी में घास में छिपाकर इस स्थान पर लाया  था... यहां उनका अंतिम संस्कार किया था । तब से ही ये स्थान गुरु स्थान बन गया और यहां सिक्ख -पंथ के अनुयायी अपने दिवंगत जनों की अस्तिया को  विसर्जित करते हैं।इसलिए इस स्थान को सिक्खों का #काशी भी कहा जाता हैं ...

आनंदपुर  साहिब से सिर्फ 10 km की दूरी पर हैं सिख धर्म का दूसरा ऐतिहासिक गुरद्वारा जिसे पातालपुरी के नाम से जाना जाता हैं...।
हर सिक्ख का ये सपना होता हैं कि मृत्यु के पश्चात उसका अस्ती-कलश किरतपुर साहिब में विसर्जित हो।
यहां सतलुज नदी बहती हैं जिसमें अस्थि विसर्जित होती हैं।

कीरतपुर साहिब :-- 1627 में 6 वें सिख गुरु, गुरु हरगोबिंद साहिब जी द्वारा स्थापित किया गया था , जिन्होंने अपने बेटे, बाबा गुरदित्त के माध्यम से केलूर के राजा ताराचंद से जमीन खरीदी थी। यह स्थान एक मुस्लिम संत पीर बुद्धन शाह की स्मृति से भी जुड़ा हुआ है।

यह स्थान सतलुज नदी के तट पर आनंदपुर के दक्षिण में लगभग 10 किमी, रूपनगर के उत्तर में लगभग 30 किमी और नङ्गल रूपनगर- चंडीगढ़ सड़क (NH21) पर चंडीगढ़ से 90 किमी दूर स्थित है। 

यह सिखों के लिए एक पवित्र स्थान है। गुरु नानक देव के बारे में कहा जाता है कि वे इस स्थान पर आए थे, छठे गुरु, गुरु हरगोविंद साहब ने अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष यहां बिताए थे... दोनों गुरु हरीरायजी और गुरु हरिकिशन जी भी इस जगह ही पैदा हुए थे और उन्होंने इसी जगह  गुरु गद्दी प्राप्त कि थी। 

 फिल्म वीर-ज़ारा (2004) में इसी स्थान को दिखाया गया हैं जब प्रीति जिंटा पाकिस्तान से अपनी मुंह बोली दादी के अस्ती फूल विसर्जित करने आती हैं और रास्ते में शाहरुख खान मिलता हैं और यही से इनकी प्रेमकहानी शुरू होती हैं।

विरासत-ए- खालसा देखकर मन बहुत विचलित था..हम चुपचाप बैठे हुए थे ...गुरद्वारा पातालपुरी पहुंचकर हम गुरद्वारे के अंदर गए काफी सुंदर गुरद्वारा बना था मैं अंदर का एक फोटू खींचने लगी तो एक बन्दे ने आकर मना कर दिया लेकिन तब तक मैंने घर वालों को दिखाने के लिए एक फोटू खींच  ही लिया था।😊

फिर मैंने अपना मोबाइल बैंग में रख लिया..यहां भाभी ने मेरे मम्मी -पापा ओर दोनों भाइयों के नाम की #अरदास करवाई  तो मैंने भी अपने सास-ससुर ओर जेठजी के नाम की अरदास करवा दी...प्रसाद लेकर हम बाहर पवित्र नदी के पास आ गए ...

नहाने की बहुत इच्छा थी मगर टाइम कम था क्योंकि आज ही हमको मनिकरण पहुंचना था और वहां जाने में 7-8 घण्टे लगने थे तो हमने सिर्फ अपने बुजुर्गो के नाम का पानी छोड़ा और अपने ऊपर भी पानी का छिड़काव कर के वापस हो लिए...यहां भी लँगर हो रहा था मगर मुझे भूख नही थी लेकिन रुकमा ओर भाभी ने थोड़ा लँगर खाया फिर हम वापस कार में आ गए..आगे के सफर को चल दिये।

शेष अगले एपिसोट र्में😊


अमृतसर यात्रा भाग 6



अमृतसर यात्रा भाग6 
(आनंदपुर साहिब)
1जून 2019

28 मई को मैं ओर मेरी सहेली रुक्मणि बम्बई से अमृतसर गोल्डन टेम्पल ट्रेन से अमृतसर को निकले..रतलाम  में मेरी भाभी भी आ  गई ...तीसरे दिन 30 मई को सुबह 6 बजे हम सब अमृतसर पहुँच गये,अमृतसर अच्छे से घूमकर आज सुबह हम अमृतसर से निकलकर माता चिंतपूर्णी के बाद माता ज्वालादेवी के दर्शन करके हम रात को आनंदपुर साहिब आये, रात हमने आनंदपुर साहिब में ही गुजरी, अब आगे...

सुबह 7 बजे नींद अचानक खुल गई देखा तो रुकमा जोर- जोर से चिल्लाकर मुझे जगाने का असफल प्रयास कर रही थी और मैं अपने सारे घोड़े बेचकर बेसुद सोई पड़ी थी कि उसकी आखरी चीख़ से मेरी नींद टूट गई और मैं भौचक्की हो उसको देख रही थी,आज मेरी ख़ेर नही थी😊 उसको गुस्से में देख मैं चुपचाप फटाफट फ्रेश होने चल दी क्योंकि रुकमा ओर भाभी दोनों नहाधोकर गुलफ़ाम बनी मुझे घूर रही थी।

थोड़ी देर बाद मैं भी मेमसाब बन अपना समान अटैची में रख रही थी ..दरवाजे को लॉक कर के हम तीनों गुरद्वारे की तरफ चल दिये। 

आनंदपुर साहिब:--

आनंदपुर साहिब हिमालय पर्वत श्रृंखला के निचले इलाके में बसा है। इसे ‘होली सिटी ऑफ ब्लेस ’ के नाम से भी जाना जाता है...इस शहर की स्थापना 9वें सिक्ख गुरू, गुरू तेग बहादुर साहेब ने की थी .. कहते हैं, बिलासपुर की रानी चंपा ने अपने पति राजा दीपचंद की शोकसभा में आने के लिए गुरूजी को जमीन का  एक हिस्सा भेट स्वरूप  दिया था।यही दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्ख धर्म की स्थापना की थी,पहले पांच साहसी पुरुषों को सिक्ख बनाया उनको गुरु बनकर अमृतपान करवाया फिर खुद शिष्य बनकर उनसे अमृतपान किये ओर सिक्ख बने। इस तरह सिक्ख-पंथ की स्थापना हुई👏

कल रात वाले दरवाजे से ही हम लोगों ने गुरद्वारे के अंदर प्रवेश किया मथ्था टेका ओर प्रसाद लेकर बाहर निकल पड़े।
थोड़ी देर ऊपर ही घुमते रहे..छत से सारा आनंदपुर साहिब दिख रहा था,गर्मी बहुत थी और छत तप रही थी तो हम वापस रूम में आये और समान लेकर कार तक आये, सामने ही हमारे ड्राइवर सरदारजी खड़े थे,समान गाड़ी में रखकर ऑफिस में जाकर चाबी लौटाई ओर अपना बकाया पैसा लेकर मैं वापस कार में बैठ गई अब हम लँगर खाने गुरद्वारे के निचले हिस्से में चल दिये क्योकि आज ऊपर से ही नीचे 4 माला उतरने का बिल्कुल भी मन नही था ,इसलिए कार से ही हम नीचे वाले एरिये में जायेगे।  कल हम जिस सड़क से आये थे उधर से ही वापस हम लँगर हाल गए और लँगर खाया...लँगर बहुत टेस्टी था, वही हमने चाय भी पी ओर तुरंत गाड़ी में बैठकर विरास्ते- खालसा देखने चल दिये...

विरास्त-ऐ-खालसा 13 अप्रैल 1999 को बना था।विरासत-ए-खालसा सिक्ख धर्म का एक संग्रहालय है, जो पंजाब राज्य की राजधानी चंडीगढ़ के पास जिला रूपनगर शहर आनन्दपुर साहिब में स्थित है। संग्रहालय सिख इतिहास के 500 साल और खालसा-पंथ के जन्म की 300 वीं वर्षगांठ के जश्न में बनाया गया हैं इसको दसवें और अंतिम गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा लिखित शास्त्रों के आधार पर बनाया गया हैं  यहां पर्यटकों और तीर्थयात्रियों का मेला लगा रहता है।

कुछ देर बाद हमारी कार वहां पहुंची
जहां काफी भीड़ थी क्योकि वहां टिकिट घर था,और टिकिट के लिए लंबी लाइन लगी थी... टिकिटघर हर दो घण्टे बाद खुलता था और जितनी कैपेसिटी थी उतने टिकिट वितरित किये जाते थे...यहां सीनियर सिटीजन की एंट्री फ्री थी जिसके लिए Id जरूरी था और एक सीनियर सिटीजन के साथ 10 बन्दे भी फ्री इंट्री कर सकते थे।
इसलिए हमने एक Id निकाली और 3 टिकिट लेकर सामने वाली खाली जगह में फैले विरासतें खालसा बिल्डिंग की ओर चल दिये...

यह एक लंबी पुलनुमा जगह थी जिसके एक तरफ पानी भरा हुआ था काफी सुंदर और भव्य जगह थी, पुल पार करते हुए हमने अंदर प्रवेश किया
 ...यहां कड़ाई से हमारा मुआवना हुआ फोन बंद करने का आदेश हुआ जिसे हमने तुरंत अमल किया और एक लम्बे ठंडे कमरे में प्रवेश किया।
यहां का शिल्प देखने काबिल हैं,लकड़ी की नक्कासी द्वारा ओर सिख इतिहास को लाईट के इफेक्ट से खूबसूरत जामा पहनाया गया हैं। एकदम साइलेंट Ac कमरों को पार करते हुए हम एक अलग ही दुनियां में खो से गये थे ...मूक आवाज़ निकाले इस कलात्मक दुनियां को देखकर हम हतप्रभ थे... मुंह मे जबान ही नही थी...इस जगह का वर्णन करना सूरज को दीपक दिखाने जैसा था ... विस्मयी आंखों से सारा इतिहास देखते हुए और पढ़ते हुए काफी समय गुजर गया और जब बाहर निकले तो तंद्रा भंग हुई आंखों से अश्रुधारा बह रही थी हमारा सिख इतिहास बहुत ही दर्दनाक था,हमारे गुरुओं के बलिदान से सर नतमस्तक था ।
बाहर निकलकर हम थोड़ी देर स्तब्ध होकर नकारा से बैठे रहे...दिमाग एकदम से सुन्न था ...
काफी देर तक हम पेड़ के नीचे बैठे रहे...रह -रहकर यही ख्याल आ रहा था कि कितनी खूबसूरती से विरास्ते खालसा  टाउनशिप  को बनाया गया हैं...ये सचमुच खालसा-पंथ की यादगार छबि पेश करता हैं...जिंदगी में एक बार ही सही पर सभी को यहां आकर ये जगह देखनी चाहिए..।

थोड़ी देर बाद  हमने वही सरदारजी को कार सहित बुला लिया ओर आगे किरतपुर की तरफ चल दिये..।
शेष आगे...

                   विरासते खालसा 
                  लँगर के बाद चाय

                  विरासते खालसा (गुुुगल)


मंगलवार, 14 जुलाई 2020

जिंदा हूँ मैं

"जिन्दा हूँ मैं "

बर्फ की मानिंद चुप -सी थी मैं ----क्या कहूँ  ?
कोई कोलाहल नहीं ?
एक सर्द -सी सिहरन भोगकर,
समझती थी की   "जिन्दा हूँ मैं " ?
कैसे ????
उसका अहम मुझे बार -बार ठोकर मारता रहा --
और मैं ! एक छोटे पिल्लै की तरह --
बार -बार उसके  कदमो से लिपटती रही --
नाहक अहंकार हैं उसे ?
क्यों इतना गरूर हैं उसे ?
क्या कोई इतना अहंकारी भी हो सकता हैं  ?
किस बात का धमंड हैं उसे ???
सोचकर दंग रह जाती हूँ मैं ---

कई बार चाहकर भी उसे कह नहीं पाती हूँ ?
अपने बुने जाल में फंसकर रह गई हूँ  ?
दर्द के सैलाब में  बहे जा रही हूँ --
मज़बूरी की जंजीरों ने जैसे सारी कायनात को जकड़ रखा हैं --
और मैं ,,,,
अनंत  जल-राशी के भंवर में फंसती जा रही हूँ ?
आगे तो सिर्फ भटकाव हैं ?
 मौत हैं ..?
समझती हूँ --  
पर, चाहकर भी खुद को इस जाल से छुड़ा नहीं पाती हूँ

ख्वाबों को देखना मेरी आदत ही नहीं मज़बूरी भी हैं  
खवाबों में जीने वाली एक मासूम लड़की --
जब कोई चुराता हैं उन सपने को
 तो जो तडप होती हैं उसे क्या तुम सहज ले सकते हो ?
यकीनन नहीं ,,,,,,
सोचती हूँ -----
क्या मैं कोई अभिशप्त यक्षिणी हूँ ?
जो बरसो से तुम्हारा इन्तजार कर रही हूँ  ?
या अकेलेपन का वीरान जंगल हूँ --?
जहाँ देवनार के भयानक वृक्ष मुझे घूर रहे हैं !
क्या ठंडा और सिहरन देने वाला कोई शगूफा हूँ ?
जो फूटने को बैताब  हैं !
या दावानल हूँ जलता  हुआ ?
जो बहने को बेकरार हैं    ?

क्यों अपना अतीत और वर्तमान ढ़ो  रही हूँ  ?
क्यों अतीत की  परछाईया पीछे पड़ी हैं  ?
चाहकर भी छुटकार नहीं ?
असमय का खलल !
निकटता और दुरी का एक समीकरण ---
जो कभी सही हो जाता हैं ?
 और कभी गलत हो जाता हैं ?

सोचती हूँ तो चेहरा विदूषक हो जाता हैं ?
लाल -पीली लपटें निकलने लगती हैं  ?
और शरीर जैसे शव -दाह हो जाता हैं ?
 मृत- प्रायः !!!!

मेरा दुःख मेरा हैं ,मेरा सुख मेरा हैं !
अब इसमें किसी को भी आने की इजाजत नहीं हैं ?
न तुम्हारा अहंकार !
न तुम्हारा तिरस्कार !
"मैं ही मैं हूँ, दूसरा कोई नहीं"

----दर्शन के दिल से

शनिवार, 11 जुलाई 2020

*हमसफ़र*


#सफर और #हमसफ़र

ट्रेन चलने को ही थी कि अचानक कोई जाना पहचाना सा चेहरा जर्नल बोगी में आ गया। मैं अकेली सफर पर थी। सब अजनबी चेहरे थे। स्लीपर का टिकिट नही मिला तो जर्नल डिब्बे में ही बैठना पड़ा। मगर यहां ऐसे हालात में उस शख्स से मिलना। जिंदगी के लिए एक संजीवनी के समान था। 

जिंदगी भी कमबख्त कभी कभी अजीब से मोड़ पर ले आती है। ऐसे हालातों से सामना करवा देती है जिसकी कल्पना तो क्या कभी ख्याल भी नही कर सकते । 

वो आया और मेरे पास ही खाली जगह पर बैठ गया। ना मेरी तरफ देखा। ना पहचानने की कोशिश की। कुछ इंच की दूरी बना कर चुप चाप पास आकर बैठ गया। बाहर सावन की रिमझिम लगी थी। इस कारण वो कुछ भीग गया था। मैने कनखियों से नजर बचा कर उसे देखा। उम्र के इस मोड़ पर भी कमबख्त वैसा का वैसा ही था। हां कुछ भारी हो गया था। मगर इतना ज्यादा भी नही। 
फिर उसने जेब से चश्मा निकाला और मोबाइल में लग गया।

चश्मा देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। उम्र का यही एक निशान उस पर नजर आया था कि आंखों पर चश्मा चढ़ गया था। चेहरे पर और सर पे मैने सफेद बाल खोजने की कोशिश की मग़र मुझे नही दिखे। 

मैंने जल्दी से सर पर साड़ी का पल्लू डाल लिया। बालो को डाई किए काफी दिन हो गए थे मुझे। ज्यादा तो नही थे सफेद बाल मेरे सर पे। मगर इतने जरूर थे कि गौर से देखो तो नजर आ जाए।

मैं उठकर बाथरूम गई। हैंड बैग से फेसवाश निकाला चेहरे को ढंग से धोया फिर शीशे में चेहरे को गौर से देखा। पसंद तो नही आया मगर अजीब सा मुँह बना कर मैने शीशा वापस बैग में डाला और वापस अपनी जगह पर आ गई। 

मग़र वो साहब तो खिड़की की तरफ से मेरा बैग सरकाकर खुद खिड़की के पास बैठ गए थे।
मुझे पूरी तरह देखा भी नही बस बिना देखे ही कहा, " सॉरी, भाग कर चढ़ा तो पसीना आ गया था । थोड़ा सुख जाए फिर अपनी जगह बैठ जाऊंगा।" फिर वह अपने मोबाइल में लग गया। मेरी इच्छा जानने की कोशिश भी नही की। उसकी यही बात हमेशा मुझे बुरी लगती थी। फिर भी ना जाने उसमे ऐसा क्या था कि आज तक मैंने उसे नही भुलाया। एक वो था कि दस सालों में ही भूल गया। मैंने सोचा शायद अभी तक गौर नही किया। पहचान लेगा। थोड़ी मोटी हो गई हूँ। शायद इसलिए नही पहचाना। मैं उदास हो गई। 

जिस शख्स को जीवन मे कभी भुला ही नही पाई उसको मेरा चेहरा ही याद नही😔

माना कि ये औरतों और लड़कियों को ताड़ने की इसकी आदत नही मग़र पहचाने भी नही😔

शादीशुदा है। मैं भी शादीशुदा हुँ जानती थी इसके साथ रहना मुश्किल है मग़र इसका मतलब यह तो नही कि अपने खयालो को अपने सपनो को जीना छोड़ दूं। 
एक तमन्ना थी कि कुछ पल खुल के उसके साथ गुजारूं। माहौल दोस्ताना ही हो मग़र हो तो सही😔

आज वही शख्स पास बैठा था जिसे स्कूल टाइम से मैने दिल मे बसा रखा था। सोसल मीडिया पर उसके सारे एकाउंट चोरी छुपे देखा करती थी। उसकी हर कविता, हर शायरी में खुद को खोजा करती थी। वह तो आज पहचान ही नही रहा😔

माना कि हम लोगों में कभी प्यार की पींगे नही चली। ना कभी इजहार हुआ। हां वो हमेशा मेरी केयर करता था, और मैं उसकी केयर करती थी। कॉलेज छुटा तो मेरी शादी हो गई और वो फ़ौज में चला गया। फिर उसकी शादी हुई। जब भी गांव गई उसकी सारी खबर ले आती थी। 

बस ऐसे ही जिंदगी गुजर गई।

आधे घण्टे से ऊपर हो गया। वो आराम से खिड़की के पास बैठा मोबाइल में लगा था। देखना तो दूर चेहरा भी ऊपर नही किया😔

मैं कभी मोबाइल में देखती कभी उसकी तरफ। सोसल मीडिया पर उसके एकाउंट खोल कर देखे। तस्वीर मिलाई। वही था। पक्का वही। कोई शक नही था। वैसे भी हम महिलाएं पहचानने में कभी भी धोखा नही खा सकती। 20 साल बाद भी सिर्फ आंखों से पहचान ले☺️
फिर और कुछ वक्त गुजरा। माहौल वैसा का वैसा था। मैं बस पहलू बदलती रही। 

फिर अचानक टीटी आ गया। सबसे टिकिट पूछ रहा था। 
मैंने अपना टिकिट दिखा दिया। उससे पूछा तो उसने कहा नही है।

टीटी बोला, "फाइन लगेगा"
वह बोला, "लगा दो"
टीटी, " कहाँ का टिकिट बनाऊं?"

उसने जल्दी से जवाब नही दिया। मेरी तरफ देखने लगा। मैं कुछ समझी नही। 
उसने मेरे हाथ मे थमी टिकिट को गौर से देखा फिर टीटी से बोला, " कानपुर।"
टीटी ने कानपुर की टिकिट बना कर दी। और पैसे लेकर चला गया।
वह फिर से मोबाइल में तल्लीन हो गया।

आखिर मुझसे रहा नही गया। मैंने पूछ ही लिया,"कानपुर में कहाँ रहते हो?"
वह मोबाइल में नजरें गढ़ाए हुए ही बोला, " कहीँ नही" 
वह चुप हो गया तो मैं फिर बोली, "किसी काम से जा रहे हो"
वह बोला, "हाँ"

अब मै चुप हो गई। वह अजनबी की तरह बात कर रहा था और अजनबी से कैसे पूछ लूँ किस काम से जा रहे हो।
कुछ देर चुप रहने के बाद फिर मैंने पूछ ही लिया, "वहां शायद आप नौकरी करते हो?"
उसने कहा,"नही"

मैंने फिर हिम्मत कर के पूछा "तो किसी से मिलने जा रहे हो?"
वही संक्षिप्त उत्तर ,"नही"
आखरी जवाब सुनकर मेरी हिम्मत नही हुई कि और भी कुछ पूछूँ। अजीब आदमी था । बिना काम सफर कर रहा था।
मैं मुँह फेर कर अपने मोबाइल में लग गई। 
कुछ देर बाद खुद ही बोला, " ये भी पूछ लो क्यों जा रहा हूँ कानपुर?"

मेरे मुंह से जल्दी में निकला," बताओ, क्यों जा रहे हो?"
फिर अपने ही उतावलेपन पर मुझे शर्म सी आ गई। 
उसने थोड़ा सा मुस्कराते हुवे कहा, " एक पुरानी दोस्त मिल गई। जो आज अकेले सफर पर जा रही थी। फौजी आदमी हूँ। सुरक्षा करना मेरा कर्तव्य है । अकेले कैसे जाने देता। इसलिए उसे कानपुर तक छोड़ने जा रहा हूँ। " इतना सुनकर मेरा दिल जोर से धड़का। नॉर्मल नही रह सकी मैं।

मग़र मन के भावों को दबाने का असफल प्रयत्न करते हुए मैने हिम्मत कर के फिर पूछा, " कहाँ है वो दोस्त?"
कमबख्त फिर मुस्कराता हुआ बोला," यहीं मेरे पास बैठी है ना"

इतना सुनकर मेरे सब कुछ समझ मे आ गया। कि क्यों उसने टिकिट नही लिया। क्योंकि उसे तो पता ही नही था मैं कहाँ जा रही हूं। सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए वह दिल्ली से कानपुर का सफर कर रहा था। जान कर इतनी खुशी मिली कि आंखों में आंसू आ गए।

दिल के भीतर एक गोला सा बना और फट गया। परिणाम में आंखे तो भिगनी ही थी।
बोला, "रो क्यों रही हो?"

मै बस इतना ही कह पाई," तुम मर्द हो नही समझ सकते"
वह बोला, " क्योंकि थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ इसलिए एक कवि और लेखक भी हूँ। सब समझ सकता हूँ।"
मैंने खुद को संभालते हुए कहा "शुक्रिया, मुझे पहचानने के लिए और मेरे लिए इतना टाइम निकालने के लिए"
वह बोला, "प्लेटफार्म पर अकेली घूम रही थी। कोई साथ नही दिखा तो आना पड़ा। कल ही रक्षा बंधन था। इसलिए बहुत भीड़ है। तुमको यूँ अकेले सफर नही करना चाहिए।"

"क्या करती, उनको छुट्टी नही मिल रही थी। और भाई यहां दिल्ली में आकर बस गए। राखी बांधने तो आना ही था।" मैंने मजबूरी बताई।

"ऐसे भाइयों को राखी बांधने आई हो जिनको ये भी फिक्र नही कि बहिन इतना लंबा सफर अकेले कैसे करेगी?"

"भाई शादी के बाद भाई रहे ही नही। भाभियों के हो गए। मम्मी पापा रहे नही।"

कह कर मैं उदास हो गई।
वह फिर बोला, "तो पति को तो समझना चाहिए।"
"उनकी बहुत बिजी लाइफ है मैं ज्यादा डिस्टर्ब नही करती। और आजकल इतना खतरा नही रहा। कर लेती हुँ मैं अकेले सफर। तुम अपनी सुनाओ कैसे हो?"

"अच्छा हूँ, कट रही है जिंदगी"
"मेरी याद आती थी क्या?" मैंने हिम्मत कर के पूछा।
वो चुप हो गया।

कुछ नही बोला तो मैं फिर बोली, "सॉरी, यूँ ही पूछ लिया। अब तो परिपक्व हो गए हैं। कर सकते है ऐसी बात।"
उसने शर्ट की बाजू की बटन खोल कर हाथ मे पहना वो तांबे का कड़ा दिखाया जो मैंने ही फ्रेंडशिप डे पर उसे दिया था। बोला, " याद तो नही आती पर कमबख्त ये तेरी याद दिला देता था।"

कड़ा देख कर दिल को बहुत शुकुन मिला। मैं बोली "कभी सम्पर्क क्यों नही किया?"

वह बोला," डिस्टर्ब नही करना चाहता था। तुम्हारी अपनी जिंदगी है और मेरी अपनी जिंदगी है।"
मैंने डरते डरते पूछा," तुम्हे छू लुँ"

वह बोला, " पाप नही लगेगा?"
मै बोली," नही छू ने से नही लगता।"
और फिर मैं कानपुर तक उसका हाथ पकड़ कर बैठी रही।।

बहुत सी बातें हुईं।

जिंदगी का एक ऐसा यादगार दिन था जिसे आखरी सांस तक नही बुला पाऊंगी।
वह मुझे सुरक्षित घर छोड़ कर गया। रुका नही। बाहर से ही चला गया।

जम्मू थी उसकी ड्यूटी । चला गया।

उसके बाद उससे कभी बात नही हुई । क्योंकि हम दोनों ने एक दूसरे के फोन नम्बर नही लिए। 

हांलांकि हमारे बीच कभी भी नापाक कुछ भी नही हुआ। एक पवित्र सा रिश्ता था। मगर रिश्तो की गरिमा बनाए रखना जरूरी था। 

फिर ठीक एक महीने बाद मैंने अखबार में पढ़ा कि वो देश के लिए शहीद हो गया। क्या गुजरी होगी मुझ पर वर्णन नही कर सकती। उसके परिवार पर क्या गुजरी होगी। पता नही😔

लोक लाज के डर से मैं उसके अंतिम दर्शन भी नही कर सकी।

आज उससे मीले एक साल हो गया है आज भी रक्षाबन्धन का दूसरा दिन है आज भी सफर कर रही हूँ। दिल्ली से कानपुर जा रही हूं।आज भी अकेली हूँ... जानबूझकर जर्नल डिब्बे का टिकिट लिया है ...
न जाने दिल क्यों आस पाले बैठा है कि आज फिर वो आएगा और पसीना सुखाने के लिए उसी खिड़की के पास बैठेगा।
एक सफर वो था जिसमे कोई #हमसफ़र था।
एक सफर आज है जिसमे उसकी यादें हमसफ़र है। बाकी जिंदगी का सफर जारी है देखते है कौन मिलता है कौन साथ छोड़ता है...!!!
😥😥😥...

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

यादें


भरे -पूरे घर के इस कमरे में ,
मैं एकांकी बैठी हूँ --
मेरे साथ कैद हैं तेरी यादें,
सिलवटे -भरी चादर ,
तेरी हंसी ---
मेज की धूल भरी सतह पर,
दीखता हैं तेरा अक्स --
आँखे बंद कर लेती हूँ--
तेरी हंसी मेरे कानो मैं शहद घोल रही हैं --
अचानक उठ बैठती हूँ --
हवा मैं ठंडक का एहसास महसूस हो रहा हैं --
शायद बाहर मुसलाधार बारिश हो रही हैं--  
याद आता हैं --इन क्षणों में --
तुम्हारा स्पर्श !
तुम्हारा प्यार !!
तुम्हारी याद --!!!

---दर्शन के दिल से😎

भटकती आत्माओं का आवहान


ऐ भटकती आत्माओं
तुम्हें सलाम!

रम का पैग 
तुम्हें समर्पित!
तुम्हारी आकांक्षाओ पे निसार !

ऐ भटकती आत्माओं
तुम्हें सलाम!!!!

बरसात की बूंदे
तुम्हारी रसद
तुम्हारी बेपरवाही
इनकी गिरती टप-टप
मुझे निहाल करती हैं।

ऐ भटकती आत्मओं!
तुम्हें सलाम👏
कलेजा काटकर रखा है मैंने प्लेट में,
नमक और मिर्च स्वाद अनुसार😀
पैग के साथ कुछ चाहिए जनाब!!

ऐ भटकती आत्माओं!
तुम्हें सलाम!!!!

अण्डे उबालकर
काला नमक लगाकर,
काली मिर्च से किया श्रृंगार!
तुम्हारे इंतजार में दिल हैं बेकरार!
ऐ भटकती आत्माओं
तुम्हें सलाम!!!

गिरती बूंदे,
मन को झिझोड़ रही हैं,
बेरहम को कोस रही हैं!
आज नुक्कड़ के पकौड़ों की याद ताजा हो रही हैं😂

ऐ भटकती आत्माओं
तुम्हें सलाम😢.
रम की बूंदे 
धीरे-धीरे
कंठ से
नीचे उतर रही हैं!
ख्यालों की ईमारत आज फिर
धीरे धीरे बन रही है!
अब, जुनून का वक्त नजदीक है।

ऐ  प्यासी आत्माओं
तुम्हें सलाम!!
भावनाओं का मिक्चर!
दिल की बेचैनी!
उसका बना नमकीन!
अब तो महफ़िल का इंतजार हैं😊

ऐ मेरी प्यासी अतृप्त आत्माओं
तुझे सलाम!!!
डगमग डगमग !
बन्द आंखें!
गिलास पर निगाहें!
ओर पीने की चाहत!
मन को झिंझोड़ रही हैं--

ऐ दिल अतृप्त___
कुछ खोजता हुआ! 
तुझमें ही संतृप्त!
आज विद्रोह कर रहा हैं।
कही भी चैन नहीं
कुछ खोज रहा हैं....

  ऐ भटकती आत्माओं___
आज दिल बहुत उदास हैं।
उसके लिए जो इस जहां में नही है।
उसको सलाम!
जिसने चाहा तो?
मगर कबूल न कर सका,
उस नेक आदमी को सलाम!
मुझे तड़पता हुआ छोड़कर जाने वाले तुझे सलाम!
इस दुनिया में तुझसे बेहतर ढूंढने की लालसा को सलाम!
 ऐ भटकती आत्माओं
तुम्हें सलाम!!!

--दर्शन के दिल से😢


मंगलवार, 7 जुलाई 2020

अमृतसर यात्रा भाग 5

अमृतसर की यात्रा भाग 5

(आनंदपुर साहिब)

31 मई 2019

28 मई को मैं ओर मेरी सहेली रुक्मणि बम्बई से अमृतसर गोल्डन टेम्पल ट्रेन से अमृतसर को निकले..रतलाम  में मेरी भाभी भी आ  गई ...तीसरे दिन 30 मई को सुबह 6 बजे हम सब अमृतसर पहुँच गये,अमृतसर अच्छे से घूमकर आज सुबह हम अमृतसर से निकलकर माता चिंतपूर्णी के बाद माता ज्वालादेवी के दर्शन करके अब हम आनंदपुर साहिब जो एक ऐतिहासिक स्थल हैं उसके दर्शन करने जा रहे थे अब आगे...

अब हम हिमाचल प्रदेश से वापस पंजाब की ओर लौट रहे थे .. आनंदपुर साहिब जिसे केशगढ़ साहिब भी कहते है... पंजाब के जिला रूपनगर में स्थिति है...आनंदपुर साहिब की स्थापना सिक्खों के नवें गुरु गुरु तेगबहादुर सिंह जी ने 1665 में की थी....यह स्थान सिक्ख- पंथ के 4 तख्तों में दूसरे नम्बर पर है यही पर सिक्ख पंथ की स्थापना हुई थी इसलिए ये स्थल सिक्ख श्रद्धालुओं में पूजनीय हैं।

अब हमको 161 km  का फासला तैय करना था जिसके लिए करीब 3 घण्टे का समय लगना था...शाम हो चली थी और हम गुरद्वारा साहिब रात तक पहुंचने वाले थे आज के सफर में हम काफी थक गए थे ओर अब हम सबको बिस्तर दिख रहा था...वैसे भी आज हम आनंदपुर साहब में ही रुकने वाले थे।

हम करीब रात के 10 बजे आनंदपुर साहिब पहुंचे.. शहर बन्द हो रहा था ,कुछ दुकानें तो बन्द भी हो गई थी हमने देखा गुरद्वारा दूर से जगमगा रहा था... बहुत ही सुंदर लग रहा था ...लेकिन उधर से इंट्री नही थी हमारे सरदारजी ने नीचे जाकर इन्क्वारी की ओर फिर वापस गाड़ी को उधर ही घुमा लिया जिधर से आये थे, फिर एक गली जैसी सकरी सड़क के अंदर जाकर गाड़ी को  गुरद्वारे के पीछे वाले हिस्से में रोक दिया वही पर पार्किंग भी थी और रूम का ऑफिस भी था, पास ही काफी लंबा चौड़ा गार्डन बना हुआ था ...वही समान उतारकर हमने सबसे पहले रूम लिया 400 रु में हमको अच्छा 3 बेड वाला Ac रूम मिल गया ,अब हम रूम में जाकर थोड़ा लेट गए सब बहुत थक गए थे फिर फ्रेश होकर गुरद्वारे चल दिये, गुरद्वारे का मेनगेट बन्द था, हम साईड की सीढ़ियों से चढ़कर गुरद्वारे के अंदर  गए मथ्था टेका ओर लँगर करने चल दिये...लँगर हाल कहीं दिख नही रहा था तो एक बन्दे से पूछा तब पता चला कि लँगर हॉल तो 3 माला नीचे है ,मेरी तो जान ही निकल गई आखिर जैसे तैसे हम सब लुढ़कते हुए लँगर हाल तक पहुंच ही गए। भूख जोरों की लग रही थी हम सब खाने पर टूट पड़े... गरमा गरम दाल रोटी खाने से शरीर में जान तो आ गई  लेकिन दिमाग में नींद भी अपने पैर पसारने लगी और हम  जैसे तैसे लँगर खाकर वापस 3 माला चढ़कर ऊपर आये और अपने कमरे में जाकर जो बिस्तर पर पड़े तो सुबह ही नींद खुली...😂😂😂

रात को एक भी फोटू नही खींचा था इसलिए सॉरी😢

शेष भाग आगे..


    सभी फोोटू गुुुगल से

सोमवार, 6 जुलाई 2020

अमृतसर की यात्रा भाग 4

अमृतसर की यात्रा भाग 4
(ज्वाला माता)
31 मई 2019

28 मई को मैं ओर मेरी सहेली रुक्मणि बम्बई से अमृतसर गोल्डन टेम्पल ट्रेन से अमृतसर को निकले...रतलाम  में मेरी भाभी भी आ गई... तीसरे दिन 30 मई को सुबह 6 बजे हम सब अमृतसर पहुँच गये,अमृतसर अच्छे से घूमकर 
आज सुबह कार द्वारा हम अमृतसर से निकलकर माता चिंतपूर्णी के दर्शन कर के अब माता ज्वालादेवी के दर्शन करने जा रहे थे, अब आगे....

माता चिंतपूर्णी के मन्दिर से निकलकर हमारी गाड़ी ज्वालामाता के दरबार की ओर दौड़ रही थी।मैं पहले भी 1992 में अपनी शिंमला - मनाली यात्रा में यहां आ चुकी हूँ  लेकिन तब में ओर अब में मन्दिर में काफी अंतर आ चुका होगा ओर फिर रुकमा ओर भाभी ने भी ये मन्दिर नही देखा था वैसे भी माता के जितने दर्शन किये जाय उतना कम है.. इसलिए यहां का प्रोग्राम बनाया गया।

ख़ेर, हमारी कार तेजी से आगे दौड़ रही थी और हम आपस में गप्पे लगा रहे थे,साथ ही रुकमा की लाई हुई चीजों पर हाथ भी साफ करते जा रहे थे😀 आनंद की कोई सीमा नही थी... कभी मैं तो कभी रुकमा आगे सरदार जी के पास वाली सीट पर बैठ जाते थे और ; इसी तरह हमारा सफर आगे बढ़ता जा रहा था अब सरदार जी भी हममें घुलमिल गए थे वो भी कुछ मजेदार ओर रोचक वाक़िये सुना रहे थे, उनको बहुत आश्चर्य हो रहा था कि हम अकेली तीन लेडिस कैसे घूमने निकल गई थी।

ज्वालामाता के मन्दिर के पास हमारी कार जब रुकी तो वहां भी स्टैंड पर कार रोककर सरदारजी ने स्थानीय ऑटो वाले को रोककर हमको उसमें चढ़ा दिया,ओर उस ऑटो वाले ने भी हमको एक गली से ले जाकर ठीक मन्दिर के पीछे उतार दिया, हमने भी उसको 20 रु देकर माता के मन्दिर की तरफ रुखसत किया।

मन्दिर एकदम बदला हुआ लग रहा था 92 जैसा मुझे कहीं कुछ नजर नही आ रहा था, जब 92 में मैं यहां अपने परिवार के साथ आई थी तब हम सब रात को यहां पहुंचे थे, उस समय माता के सायन की आरती होने वाली थी और माता को सुलाने के लिए बड़ी तैयारीयां हो रही थी ... वो दृश्य सचमुच अद्भुत था जब खाली पलँग पर पुजारी माता के कपड़े और ज़ेवर से माता का श्रृंगार कर रहा था और हम सब भक्त दूर बैठे देख रहे थे फिर आरती हुई और आरती खत्म होने के बाद हम नजदीक ही अपने होटल में चले गए थे और फिर सुबह माता के दरबार में आये थे तब रात को बच्चों ने बाहर रखें पीतल के शेर पर चढ़कर फोटू भी खिंचवाई थी। आज ये मन्दिर काफी बड़ा दिख रहा था ओर वो शेर भी दिख रहा था।

ख़ेर, हमने माता ज्वाला के साक्षात दर्शन किये,जहां-जहां से ज्वाला निकल रही थी वहां-वहां से सबके साथ माता ज्वाला के दर्शन किये ओर अंत में उधर गए जिधर अकबर की खुदाई हुई नहर में से माता ज्वाला के दर्शन होते हैं....यहां हमको लाईन में लगना पड़ा था क्योंकि यहां थोड़ी भीड़ हो गई थी क्योंकि यहां कुछ लोग ही उस नहर के मुहाने पर जाते है इसलिए लाईन लंबी हो गई थी। लेकिन यहां भी दर्शन अलग हुए पहले नहर के पानी में माचिस लगाने पर ज्वालामाता दिखती थी मगर अब पूरी नहर के पानी पर आग का भभका भड़कता हुआ दिखाया गया। 

जो भी हो पर हमको दर्शन अच्छे से हुए ,बाहर अकबर का सोने का छत्र भी रखा था जो उसने माता को चढ़ाया था जो लोहे का हो गया था। दर्शन कर के हम बाहर निकल गए... अब हम लंबी सीढ़ियों से नीचे उतरे तो याद आया कि पहले हम इन्हीं सीढ़ियों से ही ऊपर मन्दिर में गए थे। नीचे माता के प्रसाद की दुकानें सजी हुई थी जहां से भाभी ने बेटी की बेटी के लिए कुछ खिलौने खरीदे ओर कुछ विशेष नही था। इसलिए हम सरदारजी की बताई हुई जगह पर आ गए ओर कार में बैठकर चल दिये अपने अगले डेस्टिनेशन पर जो कि वापस पंजाब था।
शेष अगले अंक में...

  
              नहर के दर्शन की भीड़
                         1992 की यात्रा
             1992 को रात को मन्दिर में

           1992 में मन्दिर के अंदर
 
             अकबर का छत्र