उसको हमेशा मैंने उदास ही देखा है
परछाइयों के पीछे भागते हुए,,,
छाया को पकड़ना मूर्खता है !
पर उसके वहम को तोडना मेरे लिए भी मुमकिन नहीं
परछाइयों के पीछे भागते हुए,,,
छाया को पकड़ना मूर्खता है !
पर उसके वहम को तोडना मेरे लिए भी मुमकिन नहीं
वो अपने मृत प्यार से जुड़ा है
पागलपन की हद तक
कई बार समझाया--
परछाई को पकड़ना संम्भव नहीं ?
तृष्णा के पीछे भागना मूर्खता है ?
पर वो अपने दिवा: स्वप्न से खुश है--
जानता है , पर मानता नहीं ?
उसको किसी और ने न चाहा हो ऐसा नही है।
मैंने उसको हर पल चाहा है .....
अपनी उपस्थिति उसके सम्मुख दर्ज की है ...
इजहार -ए - मोहब्बत की है ---
पर वो मेरे प्रति हमेशा ही उदासीन रहा
वो जानता है मैँ उसके लिए पागल हूँ ?
फिर भी ,
वो किसी दूसरी ही दुनियाँ में खोया रहता है
पर वो मेरे प्रति हमेशा ही उदासीन रहा
वो जानता है मैँ उसके लिए पागल हूँ ?
फिर भी ,
वो किसी दूसरी ही दुनियाँ में खोया रहता है
कई बार सोचा ,
उससे दूर चली जाऊ,
पर हर बार मेरे प्यार का पलड़ा,
उसकी बेरुखी से भारी ही पड़ा . ,
और मैं चाह कर भी दूर नहीं हो पाती ---
उसका सामना होते ही ,
मेरा दम्भ वही दम तोड़ देता है।
फिर मैं पुनः जी उठती हूँ उसके अहम पर सर फोड़ने के लिए...
शायद यही नियति है हम दोनों के प्यार की!!!!!
वो अपने प्यार की लपटो में जल रहा है
और मैँ अपने प्यार में सुलग रही हूँ____?
--दर्शन कौर *
4 टिप्पणियां:
प्रशंसनीय
गज़ब दिल पाया है आपने...अहसासों को महसूस करना...फिर शब्दों में ढालना...कमाल है...
थॅंक्स संजय
बहुत खूब. सुंदर कविता...........
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