"* नींद आँखों से कोसों दूर थी?"
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कल की रात बहुत शौख बड़ी चंचल थी .....
आसमां था काला,
सितारों की बड़ी रौनक थी !
खुली खिड़की से रौशनी का गुब्बार मुझ पर आ रहा था!
हवा के झौंके मेरे अंगों को छूकर निकल जाते थे ..!
लेकिन...
नींद आँखों से कौसो दूर र्रर्रर थी...!!
झांकता हुआ चाँद किसी की याद दिला रहा था!
किसी का मदहोश अहसास मुझे बेसुध किये जा रहा था!
वो कोई था जिसकी बांहों में मेरी जन्नत थी!
वो मेरा खवाब! मेरा प्यार ! मेरा हमदम ! मेरा नसीब था...!
पर वो मुझसे करोड़ों मील दूर था ...
चाहकर भी मैं उसे छू नहीं पा रही थी !
इसीलिए....
नींद आँखों से कौसो दूर र्रर्रर थी ...!!
वो मेरे साथ तो था,
पर मेरे पास न था ...!
उसके होने का एहसास,
मन को सुकून दे रहा था!
तन मेरी गिरफ्त से दूर किसी के आगोश में था ..
ख्यालों में ही सही,
अनुभूति तो थी---!
क्या हुआ जो स्पर्श नहीं था---!
हसरते जवां थी और उमंगे बेकाबू थी ....
शायद इसीलिए...
नींद आंखों से कौसो दूरररर थी...!!
तभी कही से अचानक एक कर्कश आवाज़ आई -----
"जागते रहो @#¢¥¿∆°
मैंने चोंक के देखा....
कोई पास न था ?
कोई साथ न था ????
कोई मेरे पहलू में न था😢
सिर्फ मैं थी और मेरी खामोशियाँ थी और मेरी तन्हाईयां थी!
-- दर्शन के दिल से
2 टिप्पणियां:
सार्थक अभिव्यक्ति।
धन्यवाद शास्त्री जी ,लगता हैं भूले नही हैं 😊
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