जीवन की इस रेल -पेल में ..इस भाग दौड़ में
जिन्दगी जैसे ठहर -सी गई थी ...
कोई पल आता तो कुछ क्षण हलचल होती ..
फिर वही अँधेरी गुमनाम राहें ,तंग गलियां ...
रगड़कर ..धसिटकर चलती जिन्दगी ...
वैसे तो कभी भी मेरा जीवन सपाट नहीं रहा ..
हमेशा कुछ अडचने सीना ठोंके खड़ी ही रही ..
उन अडचनों को दूर करती एक सज़क पहरी की तरह
मैं हमेशा धुप से धिरी जलती चट्टान पर अडिग ,
अपने पैरों के छालो की परवाह न करते हुए --
खुद ही मरहम लगाती रही .....?
निर्मल जल की तरह तो मैं कभी भी नहीं बहि..
बहना नहीं चाहती थी ,यह बात नहीं हैं ..
पर मेरा ज्वालामुखी फटने को तैयार ही नहीं था ?
अपनी ज्वाला में मैं खुद ही भस्म हो रही थी ...
न राख ही बन पाई न चिंगारी ही ...
सिर्फ दहक रही थी उसकी प्रेम -अगन में ..
उसके प्रेम -पाश से मोहित हो ..
खुद से ही दूर र्र्र्रर्र्र्र होती जा रही थी ..
मैं जानती थी की ये मोह की जंजीरे व्यर्थ हैं ..
अब, कुछ भी शेष नहीं ?????
पर, फिर भी मन के किसी कोने में एक नन्हीं -सी आस बाकी थी -
आस थी तो विश्वास भी था ....
जबकि हर बार विश्वास रेत के घरोंधे की तरह बिखर जाता था ..
हर बार टूटता ....???
मैं हर बार टूटने से बचाने में जुट जाती ....?
वो हर बार मेरे घरोंधे को एक ही झटके में तोड़ देता ..?
थप्पड़ मारना शायद उसकी प्रवृति बन चूका था ..
जिसे वो एक अमली जामा पहना देता था ..?
उसका अहम् था या उसके बनाए कानून , मुझे नहीं पता ?
पर हमेशा मेरा प्यार उसके आगे धुटने टेक देता था ..
तब मेरा मन कहता ---
"अगर वो मेरा बन न सका तो ,
मैं उसकी बन जाउंगी .."
और मैं पुल्ल्कित हो उठती ..
फूलो की तरह खिल जाती ...
पर वो कठोर पाषण बना "ज्यो -का - त्यों " पड़ा रहता ....!
उसने अपने चारों और एक कोट खड़ा कर रखा था ...
उस किले को भेदना नामुमकिन ही नहीं असम्भव भी था ..
पर, अक्सर मैं उन दीवारों के छेदों से झांक लेती थी ..
जहाँ वो अपनी चाहत की अंतिम साँसे गिन रहा था .....
मुझे देखकर भी वो अनदेखा कर जाता था ..?
क्योकि वो जानता था की मेरी मुहब्बत की शिला बहुत मजबूत हैं ..
जो किसी छोटे -मोटे भूकम्प के झटको से तहस -नहस नहीं होने वाली ....?
पर वो न जाने क्यों ??????
अपने ही बनाए हुए नियमो को ढोने में व्यस्त था ....
इस बोझ से उसके कंधे दुखने लगे थे ,मैं जानती हूँ ---
पर वो हमेशा मुस्कुराता रहता था ..!
कई बार उसे विष -बाणों से गैरों ने लहुलुहान भी किया ..
पर वो सहज बना अपना रास्ता तैय करता रहता था ...
सबके दिलो पर उसका राज चलता था ..
खूबसूरती का तो वो दीवाना था ..?
पर मेरी तरफ से वो सदा ही उदासीन ही रहा ....!
कई बार उसकी उदासीनता से हैरान मैने अपना दामन झटक लिया ..
पर वो बड़े प्यारे से अपने दंश से मुझे मूर्छित कर देता ...
और मैं वो प्रेम रूपी हाला पी जाती ..
फिर एक कामुक नागिन की तरह बल खाने लग जाती ..
फुंफकारने लगती !!!!!
तब वो शिव बन मेरा सारा हलाहल पी जाता ..
मेरा फन कुचल देता ..
और मुझे एक नए चौगे में परिवर्तित कर देता ...
जहाँ मैं फिर से घसीटने को तैयार हो जाती ......!
उस पाषण से दिल लगाने की कुछ तो सजा मिलनी चाहिए थी मुझे .....????
20 टिप्पणियां:
ओह मार्मिक प्रस्तुति ....
दर्द छुपा है शब्दों में... भावपूर्ण रचना...
कवि मन की यह कल्पना तो ग़ज़ब है !
या फिर सच का तड़का लगाकर परोशी गई है !
कुछ भी हो , बहुत सुन्दर लिखा है .
इतना दर्द तो धरती ही समेट सकती है अपने पहलु में, पाषणों को अपनी छाती पर ढोती है पर फ़ूलों को जन्म देती है। आज तो पट खोल ही दिए……………।
जितना सुंदर चित्र उससे भी प्यारी रचना.
@dhanywad...sangita di..aapka sabse pahle aana mujhe bha gaya ...
@ धन्यवाद संध्या जी... दर्द तो जीवन में चिपका हुआ हैं ...जो अब तो शायद साथ ही जाएगा ......
@धन्यवाद आहुति जी ...आपका स्वागत हैं ...
@धन्यवाद शास्त्रीजी....
@ धन्यवाद सर जी .....
जीवन में कल्पनाओं की उड़ान के साथ यथार्थ का धरातल तो होता ही हैं डॉ साहेब ......
हा हा हा हा घुंघट के पट खोल मुसाफिर जाग जरा अब भोर हुई .......
धन्यवाद सुरेंदर पा जी ....
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
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होलीकोत्सव की शुभकामनाएँ।
दर्द की गहरी अभिव्यक्ति ...
आपकी यह रचना चित्रों के साथ विशेष बन गई है।
aapko bhi shastri ji .....
Thanx Mahenderji ...
Bahut dino baad aae janab Digmbarji ....shukriya !
गहन भावों को अभिव्यक्त करती बहुत मर्मस्पर्शी रचना जो अंतस को छू जाती है...आभार और होली की हार्दिक शुभकामनायें !
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