चौकस ! कभी इधर ! कभी उधर !
गर्दन को घुमाता हुआ ..
काऊं ! कांउ !! कांउ !!!
यु चिल्ला रहा था मानो सबको खबरदार कर रहा हो ---
"मैं आ गया हूँ "
मैं आ गया हूँ "
काऊं ! काऊं !! काऊं !!!
"चल हट मुए"---पास से आवाज आई !
अम्मां डंडा ले उसके पीछे दौड़ रही थी ?
मैं हंस रही थी ----
यह रोज़ ही होता हैं ..अम्मां दौड़ कर भगा देती हैं वो फिर वापस ..
कभी यहाँ ! कभी वहां !! काऊ ..काऊ ..काऊ ,मैं हंसने लगती हूँ ....
वो अम्मी से खेलने लगता हैं ..
जब अम्मा थक जाती हैं तो हांपने लगती हैं ...
कभी इसकी काऊं - काऊं बहुत प्यारी लगती थी ?
उनके आने का सन्देश होता था ?
तब फोन और मोबाईल कहाँ हुआ करते थे ?
सन्देश वाहक का काम यहीं तो करते थे बेचारे ....
तब मन तंरगों से प्रफुल्लित हो जाया करता था ?
विश्वास हो जाता था की आज वो आने वाले हैं ...
आँखों में स्वप्न थिरकने लगते थे ...?
गालों पर एक प्यारी मुस्कान दौड़ आती थी ...?
होठों पर एक प्यासी लकीर खिंच जाती थी ...?
तन अंगडाई लेने लगता था ....
मन मयूर -सा नाचने लगता था ...
यु लगता था सारे आँगन में नाचती फिरू ..
"ताक धिना -धिन ताक "
उस दिन वो नहीं आते तो उनके ख़त का इन्तजार करती ..
बस! अभी पोस्टमेंन आएगा और उनके ख़त बाबा को देगा ?
वो हमेशा दो ख़त भेजा करते थे ---
एक घर वालो के नाम ,एक मेरे नाम ....
मैं कुछ शरमाई हुई ,,,
कुछ सकुचाई हुई ,,,
वो ख़त ले दौड़ पड़ती थी अपने कमरे में ...
कुछ देर उसको सूंघती थी ..
चूमती थी ...
फिर प्यार से सहलाती थी ..
मानो वो मेरे पास ही हो ..?
नई -नई शादी ! फिर पति के बगेर ससुराल में रहना ..
एक नवेली के लिए बड़ा मुश्किल होता हैं ...
ख़त पड़ती ,,,तो वह बड़ा ही साधारण होता था ..
"उन्हें प्यार जताना नहीं आता था "
सीधी-साधी भाषा होती थी
पर उस साधारण ख़त से मैं पुन; जीवित हो उठती थी ?
एक अजीब -सी सिहरन होती थी ..
जैसे पहले स्पर्श से होती हैं !
एक मदहोशी -भरा आलम ..
प्यार से ओत -पोत ..
तब मेरे कदम जमीं पर नहीं पड़ते थे ....?
मैं अचानक उड़ने लगती थी .....
काऊं ! काऊं !! काऊं !!!
अम्मा अभी भी उसे भगाने का प्रयास कर रही थी
और मैं टुकर -टुकर उस काले महाराज को देख रही थी --
"क्या ,,, आज फिर ये कोई अच्छी खबर सुनाएगा "
"क्या आज फिर उनका ख़त आएगा "
"या वो खुद चले आए "
मन मैं अजीबो -गरीब सपने पलने लगे ........!
पिछले १५ साल से मैं उनका इन्तजार कर रही हूँ .....
इसी आँगन में रोज कव्वें की काऊं - काऊं सुनती हूँ ..
और रोज ही मन सरपट घोड़े की तरह दौड़ने लगता हैं ...!
काऊं ! काऊं !! काऊं !!!
अचानक तन्द्रा भंग हुई ..९बज गए थे ..
उफ़ ! आज फिर आफिस में देर हो जाएगी ..और वो बुड्डा खूसट ,
अपने केबिन में बुला मुझे प्यासी नजरो से घूरेगा ...
मेरे हाथ तेजी से काम करने लगे ....
मुंडेर पर अभी भी कालूजी विराजमान थे ...???
यह रोज़ ही होता हैं ..अम्मां दौड़ कर भगा देती हैं वो फिर वापस ..
कभी यहाँ ! कभी वहां !! काऊ ..काऊ ..काऊ ,मैं हंसने लगती हूँ ....
वो अम्मी से खेलने लगता हैं ..
जब अम्मा थक जाती हैं तो हांपने लगती हैं ...
कभी इसकी काऊं - काऊं बहुत प्यारी लगती थी ?
उनके आने का सन्देश होता था ?
तब फोन और मोबाईल कहाँ हुआ करते थे ?
सन्देश वाहक का काम यहीं तो करते थे बेचारे ....
तब मन तंरगों से प्रफुल्लित हो जाया करता था ?
विश्वास हो जाता था की आज वो आने वाले हैं ...
आँखों में स्वप्न थिरकने लगते थे ...?
गालों पर एक प्यारी मुस्कान दौड़ आती थी ...?
होठों पर एक प्यासी लकीर खिंच जाती थी ...?
तन अंगडाई लेने लगता था ....
मन मयूर -सा नाचने लगता था ...
यु लगता था सारे आँगन में नाचती फिरू ..
"ताक धिना -धिन ताक "
उस दिन वो नहीं आते तो उनके ख़त का इन्तजार करती ..
बस! अभी पोस्टमेंन आएगा और उनके ख़त बाबा को देगा ?
वो हमेशा दो ख़त भेजा करते थे ---
एक घर वालो के नाम ,एक मेरे नाम ....
मैं कुछ शरमाई हुई ,,,
कुछ सकुचाई हुई ,,,
वो ख़त ले दौड़ पड़ती थी अपने कमरे में ...
कुछ देर उसको सूंघती थी ..
चूमती थी ...
फिर प्यार से सहलाती थी ..
मानो वो मेरे पास ही हो ..?
नई -नई शादी ! फिर पति के बगेर ससुराल में रहना ..
एक नवेली के लिए बड़ा मुश्किल होता हैं ...
ख़त पड़ती ,,,तो वह बड़ा ही साधारण होता था ..
"उन्हें प्यार जताना नहीं आता था "
सीधी-साधी भाषा होती थी
पर उस साधारण ख़त से मैं पुन; जीवित हो उठती थी ?
एक अजीब -सी सिहरन होती थी ..
जैसे पहले स्पर्श से होती हैं !
एक मदहोशी -भरा आलम ..
प्यार से ओत -पोत ..
तब मेरे कदम जमीं पर नहीं पड़ते थे ....?
मैं अचानक उड़ने लगती थी .....
काऊं ! काऊं !! काऊं !!!
अम्मा अभी भी उसे भगाने का प्रयास कर रही थी
और मैं टुकर -टुकर उस काले महाराज को देख रही थी --
"क्या ,,, आज फिर ये कोई अच्छी खबर सुनाएगा "
"क्या आज फिर उनका ख़त आएगा "
"या वो खुद चले आए "
मन मैं अजीबो -गरीब सपने पलने लगे ........!
पिछले १५ साल से मैं उनका इन्तजार कर रही हूँ .....
इसी आँगन में रोज कव्वें की काऊं - काऊं सुनती हूँ ..
और रोज ही मन सरपट घोड़े की तरह दौड़ने लगता हैं ...!
काऊं ! काऊं !! काऊं !!!
अचानक तन्द्रा भंग हुई ..९बज गए थे ..
उफ़ ! आज फिर आफिस में देर हो जाएगी ..और वो बुड्डा खूसट ,
अपने केबिन में बुला मुझे प्यासी नजरो से घूरेगा ...
मेरे हाथ तेजी से काम करने लगे ....
मुंडेर पर अभी भी कालूजी विराजमान थे ...???
15 टिप्पणियां:
एक समय था तब कालू जी मुफ़्त में चले आते थे, आज तो सौ का नोट दिखाने पर भी नहीं आते ……… कांव कांव करते दूसरी मुंडेर पर बैठ जाते हैं……। :)
नए प्रतीक...नए भाव....
बहुत सार्थक और अच्छी सोच ....सुन्दर कविता ...... सुंदर भावाभिव्यक्ति.
बधाई और आभार.
बहुत ही बढ़िया ।
अलग अंदाज ।
बधाई ।।
Thanx sanjay...
हा हा हा हा हा .... रिश्वत के बगेर सब जग झूठा ....नोट बेचारा खाएगा क्या ? उसकी मतलब की कोई चीज़ देते, तो आता ...!
धन्यवाद रविकर जी ....
sarpat bhaagta man ka ghoda ...
sunder rachna ...
बढिया रचना लिखी है बधाई।आप की रचना पढ पुराने दिन याद आ गए।
जब माँ कहती थी
कौआ मुडेर पर बोला है
जरुर कोई आयेगा...
कोई सुखद संदेसा दे जायेगा...
मगर अब कोई कौआ
हमारे घर के
आस पास नजर नही आता...
सोचता हूँ
कही इन्हें
पता तो नही चल गया
अब हरेक हाथ मे
मोबाइल रहता है।
कव्वे के माध्यम से कितना कुछ कह गयीं हैं आप...अद्भुत...बेजोड़ रचना है आपकी और प्रस्तुतीकरण...क्या कहूँ शब्द नहीं है...
नीरज
pata nahi kyon aapke rachnaon mein desi maati ki khusboo aati hai jo man ko baandhe rakhti hai .badhai
थंक्स नीरज जी ..स्नेह बनाए रखे ..
थंक्स शास्त्री जी ...
थंक्स amanvaishnavi जी
बहुत सुन्दर द्रश्य वर्णन से अत्यंत सुघड अभिव्यक्ति
waaah
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