रेलगाड़ी
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#रेल गाड़ी रेल गाड़ी
छुकछुक छुकछुक छुकछुक
बीच वाले स्टेशन बोले
रुक रुक रुक रुक रुक रुक....।।
बहुत ही सरल शब्दों में मैंने अपने जीवन की ये उपलब्धि लिखी हैं।
बचपन मे रेल शब्द मेरे लिए किसी अचंभे से कम नही था.....उसका एकसाथ भागना, सर से धुंए का निकलना ओर छुकछुक की मध्यम आवाज़ के साथ सीटी का बजना , भाप का चारों ओर फैलना, बड़े बड़े लोहे के पहिये ओर सबसे ज्यादा उसमे टॉयलेट का बना होना मेरे लिए बहुत ही आश्चर्य वाली बात थी।
ट्रेन की खिड़की से बाहर झांकना मेरे लिए आज भी कौतुहल का विषय है।
उन दिनों हमारे शहर #इंदौर में ज्यादा ट्रेनें नही चलती थी। छोटी लाईन होती थी जिसको #मीटर_गेज कहते है । दो ही छोटी लाईने थी । ओर दो ही प्लेटफार्म थे।
जब भी मैं #रीगल_टॉकीज में या #यशवंत_टॉकीज में कोई फ़िल्म देखने माँ और मौसी के साथ जाती थी तो ओवरब्रिज से गुजरते हुए उत्सुकतावश पुल से नीचे जरूर देखती थी क्योंकि यही मुझे रेल की टेढ़ीमेढ़ी पटरियां दिखाई देती थी.... कभी किस्मत अच्छी हो तो कोई ट्रेन भी गुजरती हुई दिखाई दे जाती थी ....तब सोचती थी ये किधर जाती होगी ?
बाद में जब मौसी ने अपना जेलरोड का मकान बेचकर #राजेन्द्र_नगर का मकान खरीदा तो हम मौसी के घर #राजेंद_नगर ट्रेन से जाने लगे, उन दिनों राजेन्द्र नगर बस का रूट नही था।
तब खिड़की के पास बैठकर भागते हुए पेडों को देखना मुझे बहुत अजीब लगता था ....क्यो सब भाग रहे है मैं यही सोचा करती थी ? कई बार तो मेरी आंखों में कोयला भी गिर जाता था तो आंख रगड़कर फिर बाहर देखने का लोभ छोड़ नही पाती थी .....तब उस खिड़की के लिए हम भाई बहनों में फ्री स्टाईल कुश्ती हो जाया करती थी ☺ तब वो आधे घण्टे का सफर ऐसा लगता था मानो कोई जंग जीत कर आ रहे हो....क्योकि चेहरा भी काला हो जाता था और कपड़ों पर कोयले के छोटे छोटे कण बिखरे पड़े रहते थे।
उन दिनो कोयले वाले स्टीम इंजन चला करते थे और मीटरगेज की गाड़ियों में साइड की सीट नही होती थी ....सिर्फ लकड़ी की बेंचेस होती थी वो भी पीले रंग से पुती हुई।
उन दिनों थर्ड क्लास की सीटे होती थी ....जो बाद में रेल्वे ने बन्द कर दी ... Ac कूपे तो शायद होते ही नही थे प्रथम श्रेणी होती होगी पर मैंने देखी नही थी ....मुझे लकड़ी की बेंच ही याद है।
उन दिनों मैं अक्सर ट्रेन से मेरे पापा के गहरे दोस्त ठाकुर साहब के घर #फतेहाबाद भी जाती थी .... उन दिनो ट्रेन में कुछ बिकता नही था सिर्फ फतेहाबाद में #गुलाबजामुन मिलते थे ।वहां के गुलाबजामुन बड़े ही रसभरे होते थे तब वो मिट्टी के सकोरे में मिलते थे जिनकी खुशबू से ही मन तृप्त हो जाया करता था।
शादी के बाद जब रतलाम से छोटी लाईन की रेलगाड़ी पकड़ती थी तो गरम -गरम गुलाबजामुन का सकोरा जरूर अपने घर इंदौर ले जाती थी ।
फतेहाबाद जिसे मैं फतियाबाद बोलती थी☺ ये इंदौर से रतलाम के बीच छोटी लाईन पर आने वाला स्टेशन है.... शायद अभी भी आता होगा लेकिन सन 1983 के बाद फिर मैं कभी उधर से नही आई .... क्योकि फिर बड़ी लाईन बन गई और मेरा सफर बड़ी लाईन से नागदा वाया उज्जैन होते हुए इंदौर तक सिमिट गया।
हा तो मैं कह रही थी कि बचपन मे 5-6 साल तक तो मैंने ये #लोहपथगामिनी को देखा तक नही था ....सिनेमा हॉल में किसी डॉक्यूमेंट्री में देखा हो तो याद नही था ....उन दिनों स्कूल में भी बच्चे को 7 साल का होने के बाद ही #कच्ची_पहली में बिठाया जाता था तो पुस्तकों में भी देखा नही था ।
फिर एक दिंन जब मैं सावन सोमवार को घण्टाघर गई थी ....
तब किसी बड़े ने जोश भरे शब्दो मे बोला था कि---- #किसी_ने_रेलगाड़ी_देखी_है ? तब हम सब बच्चे एक दूसरे का मुंह टुकुर टुकुर देख रहे थे-- 'ये रेलगाड़ी क्या बला है ? तब हम सब बच्चो ने पहली बार ओवरब्रिज से नीचे झांककर पटरियों को देखा था .....उस समय कोई ट्रेन नही गुजर रही थी इसलिए अगली बार देखने का प्रोग्राम बनाया गया.....
दूसरे दिन किसी को बगैर बोले हम सब जेलरोड से दौड़ते हुए घण्टाघर पहुंच गए और ओवरब्रिज से लटककर खड़े हो गए .... तब करीब आधा घण्टा गुजर गया पर कोई ट्रेन नही आई तो हम सब बड़ो के साथ ( हमसे थोड़े बड़े बच्चे) हाथ पकड़कर सीधे रेल्वेस्टेशन ही चल पड़े थे तब पहली बार #रेल्वे_स्टेशन और इस #रेलगाड़ी_के_दर्शन किये...
उस समय इतना बड़ा काला इंजन देखकर आंखें फ़टी की फटी रह गई थी फिर उसके पीछे लाल रंग के डिब्बे अनोखे लग रहे थे हमने गिने तो पूरे सात डिब्बे थे। काला इंजन ओर उसके पीछे लाल डिब्बे बड़े ही मोहक लग रहे थे।
फिर तो अक्सर रेलगाड़ी देखने स्टेशन चले जाया करते थे । उन दिनों इंदौर का जेलरोड (मेन रोड) इतना व्यस्त नही होता था..
कुछ साइकिले ओर तांगे ही चलते थे ऑटो ओर कारे बहुत कम होती थी .....हम बच्चे बड़े आराम से रोड पर दौड़ते थे।
फिर तो हमारे मोहल्ले में रोज शाम को रेलगाड़ी वाला खेल शुरू हो गया .... हम सब एक दूसरे के फ्रॉक या बनियान पकड़कर रेल बन जाते और आगे वाला इंजन *कुकू कु कु कुकू कु कु* हमारी रेलगाड़ी चलती रहती।☺
रेल के सफर के लिए मैं हमेशा तरसा करती थी (तब क्या पता था कि एक दिन इसी लोकल (ट्रेन) में जिंदगी गुजरेगी) क्योकि हमलोग अक्सर बस से ही आया जाया करते थे।
जब मम्मी की डेथ के बाद मैं मनासा ओर मन्दसौर आ गई तो यहा भी रेलगाड़ी देखने को नही मिली.....क्योकि यहां रेल्वे स्टेशन था ही नही (अब बन गया है) तब हम बस से ही इंदौर से मन्दसौर आते जात्ते थे।
बचपन से लेकर जवानी तक रेल के प्रति मेरा मोह बरकरार रहा रेल के प्रति मेरा जो मोह था वो इसी बात से जाहिर होता है कि जब मेरे मिस्टर का रिश्ता आया तो मैंने तुरंत एक्सेप्ट कर लिया क्योंकि वो रेल्वे में टी टी थे ,उस समय ये भी पता नही था कि ये #टीटी होता क्या है ? सिर्फ ये पता था कि रेल्वे में नोकरी करते है। ☺जबकि उन दिनों मैं BA कर रही थी लेकिन, मेरे रेल के सफर का ज्ञान उस समय भी सिर्फ राजेंन्द्र नगर और फतियााबाद तक ही सीमित था। मैंने तब तक कोई भी बड़ी यात्रा ट्रेन से नही की थी। तब घूमने की प्रवृत्ति के कारण मुझे ये प्रस्ताव वैसे भी मन माफिक लग रहा था।
जब मेरी शादी 1979 में हुई तब ट्रेन से कोटा जाने का सौभाग्य मिला....ओर यही से मेरा #रेलगाड़ी_का_स्वर्णिम_सफर शुरू हुआ।
अब तो मैं इतनी दूर की ट्रेन यात्रा कर चुकी हूं जिसकी कोई गिनती नही लेकिन आज भी मुझे सेकंड क्लास की खिड़की वाली सीट मिल जाये तो ऐसा लगता है मानो #खजाना मिल गया हो ....आज भी मुझे रात को ट्रेन में नींद नही आती अगर खिड़की वाली सीट मिल जाती है तो रात को भी खिड़की के बाहर ही मेरी निगाहें दौड़ती रहती है , काला घना अंधेरा, बिजली के बल्ब, आने वाले स्टेशन, उनके नाम , वहां खड़े मुसाफिर ओर दुकाने देखना मुझे अच्छा लगता है ....आज भी मुझे ट्रेन का सफर सबसे सुहावना ओर कम्फ़र्टेबल लगता है.....जब कोई कहता है कि फ़लाना जगह 2 दिन में आएगी ? या हमारी गाड़ी 3 दिन में पहुँचएगी ? हम बोर हो जायेगे ? तो मुझे हँसी आती है क्योंकि मुझे ट्रेन का सफर हमेशा से इंजॉय... एक्साइटमेंट... ओर मस्ती भरा ही लगता है।
आशा है मेरी छुकछुक गाड़ी आप सबको पसन्द आई होगी।
1 टिप्पणी:
पहली रेल यात्रा का रोचक संस्मरण रहा। आपकी यह छुक छुक गाड़ी मुझे बहुत पसन्द आई,मैम।
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