मेरे अरमान.. मेरे सपने..


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शनिवार, 28 दिसंबर 2013

जीवन की चाह ......



जीवन की  चाह 




जीवन की इस रेल -पेल में ..इस भाग दौड़  में 
जिन्दगी जैसे ठहर -सी गई थी ...
कोई पल आता तो कुछ क्षण हलचल होती ..
फिर वही अँधेरी गुमनाम राहें ,तंग गलियां ...
रगड़कर .. धसीटकर चलती जिन्दगी ...

वैसे तो कभी भी मेरा जीवन सपाट नहीं रहा ..
हमेशा कुछ अडचने सीना ठोंके  खड़ी ही रही ..
उन अडचनों को दूर करती एक सज़क प्रहरी की तरह 
मैं हमेशा धूप से धिरी जलती चट्टान पर अडिग ,
अपने पैरों के छालो की परवाह न करते हुए --
खुद ही मरहम लगाती रही  .....?

निर्मल जल की तरह तो मैं कभी भी नहीं बही..
बहना नहीं चाहती थी ,यह बात नहीं थी  ..
पर मेरा ज्वालामुखी फटने को तैयार ही नहीं था ?
अपनी ज्वाला में मैं खुद ही भस्म हो रही थी ...।


न राख ही बन पाई न चिंगारी ही ...


सिर्फ दहक रही थी उसकी प्रेम -अगन में  ..
उसके प्रेम -पाश से मोहित हो ..
खुद से ही दूर र्र्र्रर्र्र्र होती जा रही थी ..
मैं जानती थी की ये मोह की जंजीरे व्यर्थ हैं ..
अब, कुछ भी शेष नहीं ?????
पर, फिर भी मन के किसी कोने में एक नन्हीं -सी आस बाकी थी -
आस थी तो विश्वास भी था  ....
जबकि हर बार विश्वास रेत के घरोंधे की तरह बिखर जाता था ..
हर बार टूटता ....???
मैं हर बार टूटने से बचाने में जुट जाती  ....?

वो हर बार मेरे घरोंधे को एक ही झटके में तोड़ देता ..?
थप्पड़ मारना शायद उसकी प्रवृति बन चूका था ..
जिसे वो एक अमली जामा पहना देता था ..?
उसका अहम् था या उसके बनाए कानून , मुझे नहीं पता ?
पर हमेशा मेरा प्यार उसके आगे धुटने टेक देता था ..
 तब मेरा मन कहता ---

"अगर वो मेरा बन न सका तो ,
मैं उसकी बन जाउंगी .."

 और मैं  पुल्ल्कित हो उठती ..
फूलो की तरह खिल जाती ...
पर वो कठोर पाषण  बना "ज्यो -का - त्यों " पड़ा रहता ....!




उसने अपने चारों और एक कोट खड़ा कर रखा था ...
उस किले को भेदना नामुमकिन ही नहीं असम्भव भी था ..
पर, अक्सर मैं उन दीवारों के छेदों से झांक लेती थी ..
जहाँ वो अपनी चाहत की अंतिम साँसे गिन रहा था .....
मुझे देखकर भी वो अनदेखा कर जाता था ..?
क्योकि वो जानता था की मेरी मुहब्बत की शिला बहुत मजबूत हैं ..


जो किसी छोटे -मोटे भूकम्प के झटको से तहस -नहस नहीं होने वाली ....?

पर वो न जाने क्यों ??????
अपने ही बनाए हुए नियमो को ढोने में व्यस्त था ....
इस बोझ से उसके कंधे दुखने लगे थे ,मैं जानती हूँ ---
पर वो हमेशा मुस्कुराता रहता था ..!
कई बार उसे विष -बाणों से गैरों ने लहुलुहान भी किया  ..
पर वो सहज बना अपना रास्ता तैय  करता रहता था  ...
सबके दिलो पर उसका राज चलता था ..
खूबसूरती का तो वो दीवाना था ..?
पर मेरी तरफ से वो सदा ही उदासीन ही रहा ....!


 कई  बार उसकी उदासीनता से हैरान मैने अपना दामन झटक लिया ..
पर वो बड़े प्यारे से अपने दंश से मुझे मूर्छित कर देता ...
और मैं वो प्रेम रूपी हाला पी जाती ..
फिर एक कामुक नागिन की तरह बल खाने लग जाती ..
 फुंफकारने लगती !!!!!
तब वो शिव बन मेरा सारा हलाहल पी जाता ..
मेरा फन कुचल देता ..
और मुझे एक नए चौगे में  परिवर्तित कर देता ...


जहाँ मैं फिर से घसीटने को तैयार हो जाती ......!

उस पाषण से दिल लगाने की कुछ तो सजा मिलनी चाहिए थी मुझे .....????








गुरुवार, 7 नवंबर 2013

" रद्दी कि टोकरी "


" रद्दी कि टोकरी "

      जिंदगी एक रद्दी कि टोकरी है … 



जिंदगी एक रद्दी कि टोकरी है … 
कुछ अरमान फैंक दो... !
कुछ सपने फ़ैंक दो …!  
कुछ आंसू फैंक दो …! 
कुछ यांदे फैंक दो … !

कभी बचपन गुजर जाता है रोटियां सेकते हुए ..... 
कभी जवानी चली जाती है सपने देखते हुए .... 

फिर बुढ़ापा ही रह जाता है दस्तक देता हुआ.....
न ख़त्म होने वाला सिलसिला ……  
जहाँ न सपने रहते है ?
न अरमान ?
न उत्साह ?
न ख्याल ?

चार दिवारी में क़ैद हो जाते है ,
झुलस जाते है । 
फ़ना  हो जाते है । 

वो सपने जो जागती आँखों से देखे थे कभी मैने
अपने छोटे से घर में तुम्हारी बांहे के धेरे में बेसुध, 
मन मयूर सा नाचने को बेताब, 
पैरो में धुंधरू बाँध ,
मतवाली चाल ,
पिया के गीत गाने को बेकरार ---। 

क्या तुम होते तो मेरे साथ नाच पाते ?
वो खूबसूरत शमा !
चारो और महक !
शहनाई कि मधुर ध्वनि ---
फूलो को अपनी अंजुमन में समेटे मैं  तुम्हारे धर आती --
डोली में सवार ??????

उफ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ़ 
फिर सपने देखने लगी 
हा हा हा हा हा हा 

फिर असहाय अपने टूटे -फूटे धर में अस्तित्वहीन पड़ी हूँ --- 
 पर होठो पर एक विजेता मुस्कान लिए हुए 
जो पल मैंने अभी -अभी जिआ है उसकी स्मृति मात्र से मैं आज बहुत खुश हूँ   ----







रविवार, 21 जुलाई 2013

चंदा -मामा


चंदा -मामा 









कल देर रात चाँद बादलो में छिपा रहा ****
हमने पकड़कर खिंचा---तो बैचारा टूट गया ****
आधा हमारे हाथ आया---आधा छुट गया ****
हमने भी उसी से अपने दिल के सारे अरमान पूरे किए ****
पहले तो गुस्सा दिखाया ! फिर देर से आने का सबब पूछा ?
बैचारा हमारा डिमडोल देखकर पहले तो डर गया ****
फिर, हाथ जोड़कर पीछे पड़ गया ****

"मैडम --कहाँ -कहाँ दौड़ लगाऊँ---
किस -किस की प्यास बुझाऊँ---

एक दिन की छुट्टी पर ---
कब तक डियूटी बजाऊँ---


सदियों से दौड़ रहा हूँ ---
सालो से अत्याचार झेल रहा हूँ---.
अब, तो मुझे मुआफ करो ?
कोई दुसरे चंदा-मामा  को 'अपाइंट' करो---
कब तक मुझे दौडाओगे----
कुछ तो तरस खाओ ----


जल्दी करो दूसरी 'वेट' कर रही हैं ---
वहां न पहुंचा तो कयामत आ जाएगी --
यह सारी नारी जाति मेरे पीछे पड़ जाएगी --"

हमने भी उसका ज्यादा ' टाईम ' खराब नहीं किया ****
इसलिए, उसको देखा ! उसको पूजा !! फिर बिदा किया **********



बुधवार, 19 जून 2013

"जिन्दा हूँ मैं "







"अपने फ़साने को मेरी आँखों में बसने दो !
न जाने किस पल ये शमा गुल हो जाए !"  

बर्फ की मानिंद चुप -सी थी मैं ----क्या कहूँ  ?
कोई कोलाहल नहीं ?
एक सर्द -सी सिहरन भोगकर,
समझती थी की   "जिन्दा हूँ मैं " ?
कैसे ????
उसका अहम मुझे बार -बार ठोकर मारता रहा --
और मैं ! एक छोटे पिल्लै की तरह --
बार -बार उसके  कदमो से लिपटती रही --
नाहक अहंकार हैं उसे ?
क्यों इतना गरूर हैं उसे ?
क्या कोई इतना अहंकारी भी हो सकता हैं  ?
किस बात का धमंड हैं उसे ???
सोचकर दंग रह जाती हूँ मैं ---


कई बार चाहकर भी उसे कह नहीं पाती हूँ ?
अपने बुने जाल में फंसकर रह गई हूँ  ?
दर्द के सैलाब में  बहे जा रही हूँ --
मज़बूरी की जंजीरों ने जैसे सारी कायनात को जकड़ रखा हैं --
और मैं ,,,,
अनंत  जल-राशी के भंवर में फंसती जा रही हूँ ?
आगे तो सिर्फ भटकाव हैं ?
 मौत हैं ..?
समझती हूँ --  
पर, चाहकर भी खुद को इस जाल से छुड़ा नहीं पाती हूँ


ख्वाबों को देखना मेरी आदत ही नहीं मज़बूरी भी हैं  
खवाबों में जीने वाली एक मासूम लड़की --
जब कोई चुराता हैं उन सपने को
 तो जो तडप होती हैं उसे क्या तुम सहज ले सकते हो ?
यकीनन नहीं ,,,,,,
सोचती हूँ -----
क्या मैं कोई अभिशप्त यक्षिणी हूँ ?
जो बरसो से तुम्हारा इन्तजार कर रही हूँ  ?
या अकेलेपन का वीरान जंगल हूँ --?
जहाँ देवनार के भयानक वृक्ष मुझे घूर रहे हैं !
क्या ठंडा और सिहरन देने वाला कोई शगूफा हूँ ?
जो फूटने को बैताब  हैं !
या दावानल हूँ जलता  हुआ ?
जो बहने को बेकरार हैं    ?


क्यों अपना अतीत और वर्तमान ढ़ो  रही हूँ  ?
क्यों अतीत की  परछाईया पीछे पड़ी हैं  ?
चाहकर भी छुटकार नहीं ?
असमय का खलल !
निकटता और दुरी का एक समीकरण ---
जो कभी सही हो जाता हैं ?
 और कभी गलत हो जाता हैं ?


सोचती हूँ तो चेहरा विदूषक हो जाता हैं ?
लाल -पीली लपटें निकलने लगती हैं  ?
और शरीर जैसे शव -दाह हो जाता हैं ?
 मृत- प्रायः !!!!

मेरा दुःख मेरा हैं ,मेरा सुख मेरा हैं !
अब इसमें किसी को भी आने की इजाजत नहीं हैं ?
न तुम्हारा अहंकार !
न तुम्हारा तिरस्कार !

अब मैं हूँ और मेरी तन्हाईयाँ -----!


बुधवार, 3 अप्रैल 2013

श्री ओंकारेश्वर .... शिव का ज्योतिर्लिंग



शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक  

श्री ओंकारेश्वर -- भाग २  








दिनांक --21/1/2013:---


इंदौर भतीजी कीशादी में गई थी तो आखरी दिन ओंकारेश्वर जाने का प्रोग्राम बना लिया ..दिन के ११  बजे  हम सब खाना खाकर चल दिए ....
रास्ते में चाय का भोग लगाकर हम सब चल दिए ..अपने नियत स्थान ओंकारेश्वर ...की और ..
खाना घर से खाकर निकले थे इसलिए खाने के लिए कोई रुका नहीं हम ३ घंटे में पहुँच गए ,हमारी गाडी जहाँ रुकी थी मंदिर उसके पल्ली तरफ था बीच में नर्मदा मैया अपनी बाहें फैलाये विराजमान थी  जिसे  नाव द्वारा पार करना था  ..मंदिर में जाने से पहले हमें स्नान करना था, वैसे तो सुबह नहा - धोकर निकले थे ..पर जब भी हम यहाँ आते है तो नदी में एन्जॉय  जरुर करते है ..हम त्रवेणी तक जाकर स्नान करते है ..नाव वाला हमें वहां ले जाता है और हम जब तक पानी में मज़े करते है वो वही इन्तजार करता है फिर हमें दूसरी तरफ मंदिर के पास छोड़ देता है और हम दर्शन करते है ...बाद में हमें हमारी जगह छोड़ देता है ...

अब नाव वाले से पैसा पूछा तो वो हमे नया समझकर बोला 1 हजार लूंगा ...अब हंसने की हमारी बारी थी हा हा हा हा ..मोलभाव करके 150/  में  मामला पटा ...फिर एक दिक्कत हुई की मामा -भांजे एक साथ नाव में नहीं बैठेगे ..मेरी भतीजा बहु सरला का भाई भी साथ ही था और बेटा भी--नाव वाले को कहा की  क्या करे क्योकि कहावत है की मामा -भांजा एक साथ नाव में बैठे तो नाव यक़ीनन डूब जाती है पर नाव वाले ने कहा की आप परेशां न हो कुछ सिक्के नाव को चढ़ा दे  और हाथ जोड़कर प्रणाम करे कुछ नहीं होगा ...? मुझे हंसी आ रही थी क्योकि मैं इन चीजो पर यकीं नहीं करती खेर, ...
 हम सब नाव में  सवार घाट पर चल दिए ..सब भूल गए की मामा -भांजे बैठे है हा हा हा हा --- आज नदी में पानी बहुत था कहीं भी लाल चट्टाने दिख नहीं रही थी जहाँ हम बैठकर एन्जॉय कर सके ....



उस पार ले जाने वाली नावे इनमे मोटर भी लगी है  
  
     
 नदी से दिखाई देता मंदिर का बुर्ज सफ़ेद रंग का ,पास ही सीढियाँ दिखाई दे रही है 

नाव में सवार  मैं 


और हम पहुँच गए घाट पर  ..यहाँ पानी थोडा कम था 


 पानी में अठखेलियाँ करती हमारी फौज  


जनवरी का महिना है ठंडी तो है ही पानी में भीगने से और भी ठण्ड लगने लगी -ऊपर से हवा भी चल रही थी ...पास ही गाँव की गोरियां अपने कपड़ो का मेल निकाल  रही थी ...हमारे देश की नदियों की यही दुर्दशा है ..नदी है तो मानो सारे पाप धुल जायेगे ..सारी  गंदगी नदी में फैको ... ? कौन नदी आएगी कुछ पूछने ...

खुबसूरत लाल पत्थर ..इस नदी में लाल पत्थर के बने गोल -गोल पिंड बहुत मिलते है जिन्हें लोग शंकर बना कर पूजते है 



यह है नर्मदा नदी पर बना उड़न पुल 

कहते है नर्मदा नदी पर पुल बनता नहीं था ..रात को पूरा निर्माण  ख़त्म करके जब मजदुर जाते थे तो सुबह देखते थे की वापस पुल बीच में से टुटा हुआ है ..कई प्रयास हुए पर कोई फायदा नहीं ? फिर किसी ने सजेशन दिया और इस उड़न पुल के बीच में खाली स्थान रखा गया जहाँ दो टुकड़े लकड़ी के लगाये गए है ..आज भी ये लकड़ी के टुकड़े ज्यो के त्यों लगे है ..

मंदिर का इतिहास:--

इस मंदिर में शिव भक्त कुबेर ने तपस्या की थी तथा शिवलिंग की स्थापना की थी... जिसे शिव ने देवताओ का धनपति बनाया था I कुबेर के स्नान के लिए शिवजी ने अपनी जटा के बाल से कावेरी नदी उत्पन्न की थी I यह नदी कुबेर मंदिर के बाजू से बहकर नर्मदाजी में मिलती है, जिसे छोटी परिक्रमा में जाने वाले भक्तो ने प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखा है, यही कावेरी ओमकार पर्वत का चक्कर लगते हुए संगम पर वापस नर्मदाजी से मिलती हैं, इसे ही नर्मदा कावेरी का संगम कहते है I  धनतेरस के एक दिन पहले  इस मंदिर पर प्रतिवर्ष दिवाली की बारस की रात को ज्वार चढाने का विशेष महत्त्व है ..इस रात्रि को जागरण होता है तथा धनतेरस की सुबह ४ बजे से अभिषेक पूजन होता हैं इसके पश्चात् कुबेर महालक्ष्मी का महायज्ञ, हवन,(जिसमे कई जोड़े बैठते हैं, धनतेरस की सुबह कुबेर महालक्ष्मी महायज्ञ नर्मदाजी का तट और ओम्कारेश्वर जैसे स्थान पर होना विशेष फलदायी होता हैं ..भंडारा होता है लक्ष्मी सिद्धि के पेकेट बाटे जाते है, जिसे घर पर ले जाकर दीपावली की अमावस को विधि अनुसार धन रखने की जगह पर रखना होता हैं, जिससे घर में प्रचुर धन के साथ सुख शांति आती हैं I इस अवसर पर हजारों भक्त दूर- दूर से आते है व् कुबेर का भंडार प्राप्त कर प्रचुर धन के साथ सुख शांति पाते हैं I 

हर सोमवार को यहाँ भगवान् शिव की पांच मुख वाली सोने की मूर्ति नाव में रखकर नर्मदा नदी में घुमाते है ..आज भी सोमवार था ..हमने पास ही बैठी प्रसाद बेचने वाली महिला से पूछा तो उसने कहा की बस अभी  सवारी निकलने वाली है हमने जल्दी -जल्दी कपडे पहनने और नाव में जा बैठे ...नदी में चढाने के लिए हमने उसी महिला से नारियल खरीदे ...

जब नदी के बीचो बीच हमारी नाव पहुंची तो  हमने सभी नारियल नदी को समर्पित कर दिए ...पर ये क्या ..???????
एक 9-10  साल का लड़का अपनी थर्माकोल की बनाई हुई नाव में तेजी से आ रहा था ..हमने ध्यान नहीं दिया पर जब वो हमारे फैके हुए नारियल  उठाने लगा तो मालुम हुआ की ये बच्चा तो उसी महिला का था जिससे हमने नारियल  ख़रीदे थे ... यही नारियल वो हमे बेच देती है फिर बच्चा वापस उठा लाता है वाह  भाई वाह ...
मैं संभलती और उसका फोटू खींचती तब तक तो वो  तेजी से जा भी चूका था ..दूर से फोटू खिंचा पर ठीक से आया नहीं ...इतने मैं हमें दूर से  शिवजी को फेरी लगाने वाली नाव दिखी जिस पर भजन कीर्तन हो रहे थे ..पर दूर होने के कारण  मैं उसका भी फोटू नहीं ले सकी  और हमारी नाव किनारे आ लगी ....      



रेलिंग का फोटू तो बनता है जी :)

नाव से उतर कर रेलिंग के सहारे हम ऊपर चढ़ने लगे ..रेलिंग के दोनों तरफ प्रसाद और फूल बेचने वालियां बैठी हुई थी ...हमने भी फुल और प्रसाद खरीदा  ..यहाँ सभी औरते ही  प्रसाद बेचती हुई नजर आई ...हमने अपने जुते एक प्रसाद विक्रेता के यहाँ उतारे और मंदिर के अन्दर चल दिए ..अंदर एक पंडितजी सबके माथे पर कुमकुम से ॐ बना रहे थे और पैसे ले रहे थे हमने भी सबने ॐ का  तिलक लगाया ...ॐ सुंदर लग रहा था ..एक फोटू खीचना चाहती थी की अचानक एक और पंडित ने चन्दन पोत दिया ..सारा सुंदर ॐ  खराब कर दिया मैने उस पंडित को मन ही मन गन्दी सी गाली दी और एक भी पैसा नहीं दिया .. 



और यह है श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मुख्य दरवाजा




रेलिंग के पास सीढियों पर फ़ूल माला बेचती हुई महिलाये



चन्दन से पुता हुआ चेहरा ..कैसी लग रही हूँ  जी ?


मंदिर में प्रवेश करते ही एक पंडितजी सबके माथे पर कुमकुम से ॐ बना रहे थे और पैसे ले रहे थे हमने भी सबने ॐ का  तिलक लगाया ...और २ रु दे दिए ..ॐ सुंदर लग रहा था ..एक फोटू खींचना चाहती थी पर  अचानक एक और पंडित ने चन्दन पोत दिया ..सारा सुंदर ॐ  खराब कर दिया मैनें उस पंडित को मन ही मन गन्दी सी गाली दी और एक भी पैसा नहीं दिया .. .. हालांकि चन्दन से सर ठंडा हो गया था और तरावट भी आ गई थी ...पर अब गुस्से का क्या कीजे ....






मंदिर मैं प्रवेश करते ही एक गणेश का मंदिर आया जहाँ हमारे नारियल रख लिए या यु कहु छीन लिए ..आगे कुछ नहीं लेजा सकते है क्योकि मंदिर में ४ बजे के बाद कुछ ले जाना मना है ...हमारे हाथो के फूल इसी रेलिंग के साईट में रखे ड्रमो मैं रखवा दिए ..और हम बेवकूफ बने चलते रहे .. सामने जो दिख रहा है वही मंदिर है पर फोटू खींचना मना है---



ओंकारेश्वर महाराज की जय 


हमने लिंग के दर्शन किये जो की अब झार हो रहा है ,बहुत ही छोटा -सा पिंड है इसलिए मध्यप्रदेश गवर्मेंट ने  शिव पर जल चढ़ने की सख्ती से मनाई की है ..कई लोग कहते है ये नकली पिंड है  असली तो नीचे  रखवा दिया है ..पर मुझे वो पुराना ही लगा --शिव के पिंड के चारो और कांच की दिवार खिंची हुई  थी--- न वहां हम जल चढ़ा सकते थे न कोई फूल ...पुजारीजी ने मुझे पिंड पर पड़ी एक माला अर्पित की --आज तो शिव जी की बहुत कृपा हो रही है मुझ पर ...

 हमारे बाहर निकलते ही पंडितो का अचानक हमला हो गया .... कोई हमे यहाँ खींचता तो कोई हमें वहां खींचता ..अगर मैं अकेली होती तो कभी भी इनके चक्कर में नहीं फसती पर राधेश्याम जी बहुत ही धार्मिक प्रवृति के इंसान है सो उन्होंने एक पंडित से मोल भाव करके अभिषेक करवाने के लिए तैयार करवा लिया ...


 
 अभिषेक  हो रहा है---यहाँ  सभी चीजें रेडीमेट होती  है  ..फटाफट सब तैयार ..


भगवान ओंकारेश्वर की पाँच मुखों वाली सोने की प्रतिमा

हम अभिषेक कर ही रहे थे की नगाड़े और शंख की आवाजे आने लगी ..और जिस के लिए मन आतुर था वही सामने था यानी भगवान् शिव की पांच मुखी सोने की मूर्ति जो पालकी में  नदी भ्रमण को निकली थी वो हमारे सामने ही आकर ख़त्म हुई और हम सबने जी भर कर देखा और आरती करने का सोभाग्य भी मिला ...मुझे कभी - कभी  भ्रम भी होता है की शिवजी जिसे मैं अपना आराध्य समझती हूँ और मानती भी हूँ (पर व्रत वगैरा  नहीं करती )उन्हें मेरे दिक् की बाते कैसे मालुम हो जाती है ...आश्चर्य होता है ???
मैं  इस अद्भुत द्रश्य का फोटू लेने में लगी थी क्योकि यह सब अचानक और जल्दी - जल्दी हो रहा था  ..कई फोटू खराब हो गए थे और मुझे उठने का मौका भी नहीं मिला था ( इस मूर्ति के ठीक सामने मैं  बैठी हुई हूँ  ) राधेश्याम जी चिल्लाने लगे की पागल फोटू छोड़ और आरती कर ऐसा मौका फिर कभी नहीं मिलेगा ...और यह बात ठीक भी है बचपन से आज तक मैं अनेको बार यहाँ आई हूँ पर कभी भी मुझे मेरे ही सामने मेरी गोद के पास ही स्वयं शंकर की सवारी  मेरे इतने सम्मुख नहीं आई ...मैं इसे प्रभु की कृपा मान आरती करने लगी ....जब सवारी चली गई तो लगा मैं  दिवा स्वप्न से जागी हूँ ....  

ऊपर से खिंचा नर्मदा का  विहंगम द्रश्य ..यहाँ से नाव द्वारा पूरा चक्कर लगाया जाता है  क्योकि मंदिर बीच  में है और चारो और नदिया है  ..पर मैंने आजतक कभी पूरा चक्कर नहीं खाया ...

हमें सामने जाना है .. नदियाँ के उस पार 


वो सामने बना है ..हमारा गुरुद्वारा 

अब हम वापस इस  पार आ चुके थे .. वही हमने एक जगह देखि जहाँ से गाय के मुंह से पानी निकल रहा था ..जब पूछा तो मालुम पड़ा की यह गुप्त- गंगा है ..  इसमें पानी कहाँ  से आ रहा है किसी को पता नहीं  ..यह पानी कभी कम ज्यादा नहीं होता ..न गर्मियों में न बारिशो में ....हमने पीछे देखा तो ऊपर पहाड़ के अलावा कुछ नहीं था ...और इसकी एक बात और खास थी  वह यह की इस पानी का रंग  दूध जैसा सफ़ेद  था .. आप भी देखिये ...


 दूध के सामान पानी ..गुप्त गंगा 

ममलेशवर ज्योतिर्लिंग मंदिर 



ओकारेश्वर और ममलेशवर  ज्योतिर्लिंग एक ही है यह नदी के इस तरफ है और वो नदी के उस तरफ  इस मंदिर में भी पूजा अर्चना की जाती है पर यहाँ कोई भी व्यवस्था ठीक नहीं थी जितनी उस मंदिर में थी  जितना रख रखाव वहाँ था यहाँ नहीं ..



और अब प्रस्थान ..शाम होने को  थी ..और हमारा ड्रायवर बुला रहा था 


लौटते समय रात हो गई थी ठंडी भी बड गई थी और पेट में गड़बड़ होने लगी रही थी सुबह से खाना खाया था ...तो हम चलते है खाना खाने ....

 और इस तरह ओंकारेश्वर की यात्रा समाप्त हुई ....



मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली हैं .....






कुंहू -कुंहू बोले कोयलियाँ 
होली संग खेले सावरियां !
नीले -पीले और गुलाबी
रंग भरे पिचकारियाँ  !
गाल गुलाबी हो या लाल 
आज रंगेगी दिलवालियाँ !
बुरा न मानो होली हैं भाई !
बुरा न मानो होली हैं ! 

आगे -आगे राधा दोड़े पीछे किशन-मुरारी !   
द्वारका में होली खेले रुकमनी और गिरधारी !
हुई रंग से लाल चुनरिया ! 
सुभद्रा हुई मतवाली !
बुरा न मानो होली है भाई !
बुरा न मानो होली है ! 

लक्ष्मी आई रम्भा आई !
अपने साथ में तोहफे लाई !
गुझियो की बहार लाई !
पिन्नी और पपड़ी भी लाई ! 
हरे रंग की बर्फी खाकर !
हमने भी क्या घूम मचाई !
बुरा न मानो होली है भाई ! 
बुरा न मानो होली है !

कंचन और सुधा ने मिलकर !
ठंडी -ठंडी भांग बनाई !
हमने भी एक पैग चढ़ाया ! 
सर पर मदहोशी है छाई ! 
फिर मीठा खाकर भांग चढ़ाई !
अब तो खैर, नही हैं भाई ! 
बुरा न मानो होली है भाई !
बुरा न मानो होली हैं  !

 स्रष्टि ने क्या रूप रचाया !  
फागुन ने क्या रंग जमाया !
सबके दिलो में प्यार समाया !
आज ख़ुशी से दिल भर आया !
रंगो ने सपने सजाए !
इन्द्र धनुष ने रंग दिखाए !
रंगों ने रंग डाला  साईं !
बुरा न मानो होली हैं भाई !
बुरा न मानो होली हैं !


सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

ओंकारेश्वर .... शिव का ज्योतिर्लिंग




शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक   
ओंकारेश्वर --भाग 1 


(यह चित्र  गूगल से ---क्योकि यहाँ  फोटू खींचना मना है  )


अपनी भतीजी की शादी में इंदौर जाने का मौका मिला ..वैसे मैं  इंदौर जाने के कई मौके तलाशती रहती हूँ ...जनम स्थान का सवाल है भाई .....

दिनांक--21/1 /2013:--
 .कल तक शादी थी ..आज कुछ फ्री हुए तो सोचा कहीं घुमने जाया जाये ..कल तो वापस जाना ही है अपने गाँव ..फिर सोचा कहाँ जाया जाए क्योकिं इंदौर में ज्यादा घुमने -फिरने की जगह नहीं है ..अहिल्या की नगरी है तो शिव भक्त अहिल्या बाई होलकर के यहाँ शिव के मंदिर ही ज्यादा होगे ...तो सबने सोचा की अब ओंकारेश्वर ही  जाया जाये ..पिकनिक की पिकनिक और शिव के दर्शन भी हो जायेगे .....माध महिना चल रहा है तो इसी तरह कुछ पूजा -पाठ हम राक्षस लोग भी कर लेगे ..हा हाहा हा

अपने बचपन के दोस्त ' श्री राधेश्याम सिसोदिया साहेब' आये थे भोपाल से मुझसे मिलने ...पिछले कई सालो से उनसे मुलाकात नहीं हुई थी अब तो वो रिटायर्ड भी हो गए है ..फ़ूड कंट्रोलर रहे सिसोदिया साहेब ने ही ओंकारेश्वर का प्रोग्राम बनाया था-- बहुत धार्मिक प्रवृति के इंसान है ..उनकी पत्नी सरिता भाभी काफी समय पहले ही स्वर्ग सिधार गई थी--- उनसे भी मेरी काफी पटती थी ..मैने उनके साथ ही सन 1976 में  पहली बार ओंकारेश्वर के दर्शन किये थे ,..तब मैं  अविवाहित थी--- और उन्होंने ही कहा था की 'तुझे शिव जैसा ही पति मिलेगा' जो की  पूरी तरह सत्य हुई थी !

आज काफी साल बाद उनके साथ ही जाने का सौभाग्य मिला ...वैसे तो मैं  ओकारेश्वर कई बार गई हूँ ... 6-7 बार तो चक्कर लगाये होगे  ही ..जब भी इंदौर आती हूँ तो ओंकारेश्वर  या मांडव का एक चक्कर तो हो ही जाता है खेर ,

सुबह 11 बजे सब तैयार होकर निकल पड़े ....


गाडी नहां -धोकर तैयार है और हम सब भी  रेड्डी 




हमारी टीम चलने को तैयार 


वाहेगुरु की फ़तेह बुलाते ही गाडी चल दी ..इंदौर के बाज़ार से गुजरती हुई हाई -वे पर ..-ठंडी ठंडी हवा दिल को सुकून दे रही थी और हम सब मस्त अंताक्षरी  खेलते हुए जा रहे थे ...रास्ते में शनिदेव का बहुत ही विशाल मंदिर आया पर हम रुके नहीं ,सोचा आते समय दर्शन करेगे ...भैरों -घाट  शुरू हो गया .. भैरों - धाट पार करते ही एक चाय की दूकान पर गाडी रोक दी,..पास ही भैरों बाबा का मंदिर था ..सब वहां चल दिए ..कहते है इस धाट को पार करने से पहले भैरों बाबा के जो दर्शन नहीं करता उसके साथ कोई न कोई अनहोनी  धटना धट  जाती है ...इसलिए सभी यहाँ कुछ टाईम  अपना वक्त गुजारते है .... चाय वाले का भी फायदा हो जाता है .. वैसे जगह भी काफी खुबसूरत थी ..ठण्ड का  माहौल था ,ठंडी -ठंडी हवा चल रही थी ...बारिश में यहाँ की ग्रीनरी  देखने काबिल होती है ..चारी और पानी के झरने बहते है ...

 गुजरता  कारंवा 



भैरों बाबा का मंदिर 



जय बाबा की 


भैरों बाबा के मंदिर में मैं ....जय भैरों बाबा की 




भैरों बाबा के मंदिर में हमारी टीम 

भतीजा पापी,मैं ,भाभी,तन्नु ,भतीजी रिनू ,भतीजा बहू सरला,सरला का भाई बिट्टू ,और राधेश्याम जी  ----कैमरा गर्ल नन्नू के साथ हम सब  ....  
   


भैरों मंदिर के पास ही एक चाय की  दुकान पर प्रस्थान ---मैं, भाभी, राधेश्यामजी, और  बहू सरला 




कौन - क्या -क्या खायेगा पप्पी का सवाल ..हम तो सिर्फ चाय पियेगे भाई .




पहाड़ का  नजारा 





लो आ गई एकदम कडक चाय 



मंदिर का इतिहास :--

ओंकारेश्वर हिन्दुओ का एक धार्मिक स्थल है  यह शिव के 1२ ज्योतिर्लिंगों में से एक है ..यहाँ शिव पिंडी रूप में विराजमान है --यह मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में स्थित है --नर्मदा नदी के बीच मोरटक्का गाँव से लगभग २० किलो मीटर दूर बसा है ...दूर से देखने पर यह द्वीप    के आक़ार दिखता है, इसीलिए इसका नाम  ॐकारेश्वर पढ़ा ..यह नर्मदा नदी पर स्थित है ..नर्मदा नदी भारत की पवित्र नदियों में गिनी जाती है ..इस समय इस पर विश्व का सबसे बड़ा बाँध निर्माण हो रहा है----


 शेष अगले अंक मैं .....


रविवार, 17 फ़रवरी 2013

प्रेम - सेतु




"जिन्दगी तो मिल गई थी चाही या अनचाही--!
बीच मैं यह 'तुम' कहाँ से मिल गए राही --!!"




हम दोनों नदी के दो किनारों की तरह हैं --

जो आपस मैं कभी नही मिलते --?
दूर~~ क्षितिज मैं भी नहीं--?
जहां जमीन- आसमान एक दिखते हैं --
हमे यू ही अलग -अलग चलना हैं --
पुल का निर्माण ही,
हमारे मिलन की कसौठी हैं !
जो असम्भव हैं ---?

 क्योकि जीवन वो उफनती नदी हें 
जिस पर सेतु बनना ना मुमकिन हैं   
आधा पहर जिन्दगी का गुजर चूका है --
कुछ बाकी हैं --
वो भी गुजर ही जाएगा --???
फिर क्यों महज चंद दिनों के लिए यह रुसवाई --
हमे यू ही सफ़र तैय करना हैं --
अलग -अलग --जुदा -जुदा,




वैसे भी दोनों किनारों मैं कितनी असमानता हैं --

अलग प्रकृति !
अलग शैली !
अलग ख्वाहिशे हैं --!

इस तरफ --
प्यार हैं --चाहत हैं,
रंगीन सपने हैं --
मिलन की अधूरी ख्वाहिश हैं --
मर मिटने की दलील हैं --???

उस तरफ --
सिर्फ एहसास हैं --
जिन्दा या मुर्दा --
पता नही --?
पीड़ा देता हैं यह एहसास --!
चुभन होती हैं इससे -- !!
दर्द होता हैं --!!!
यह मृग-तृष्णा मुझे कब तक छ्लेगी --???

सिहर उठती हूँ---





यह सोच कर
कही उसके दिल मैं ' कुछ ' नहीं हुआ तो ?
कैसे रह पाउंगी --उसको खोकर ?
कैसे सह पाउंगी --उसका वियोग ?
यह मृत्यु -तुल्य बिछोह ???
मुझे अंदर तक तोड़ जाएगा ----!
"तो छोड़ दूँ"  
ज़ेहन में  उभरा एक सवाल ?
पर मन कहा मानने वाला हैं --
मन तो चंचल हैं !

समर्पित हैं ! 

उस अनजानी चाह पर,
यंकी हैं,उस अनजाने आकार पर ....   
 जो बसा हैं एक अनजाने नगर में --
दिल जिसे ढूंढता हैं एक अनजानी डगर पें--
तो चलने दूँ --- 
इस सफर को -- इस सिलसिले को ..
निरंतर --यु- ही --अलग -अलग --
कम से कम साथ तो हैं --?

अलग -अलग ही सही ???  





जिन्दगी से यही गिला हैं मुझे !
तू बहुत देर से मिला हैं मुझे  !




गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

लो फिर बसंत आया...






लो फिर बसंत आया
फूलों पे रंग छाया
पेड़ों पे टेसू आया
लो फिर बसंत आया...!

कलियों ने सिर उठाया
भंवरो ने प्यार जताया
लो फिर बसंत आया...!

जाड़े ने दुम दबाया
मौसम ने फिर तपाया
लो फिर बसंत आया..!

कोयल ने चहचहाया
बुगला भी फडफडाया
लो फिर बसंत आया...!

फागुन ने फाग चढाया 
होली ने रंग उड़ाया
लो फिर बसंत आया...!

सूरज ने भी गरमाया
कोहरा भी कसमसाया
लो फिर बसंत आया..!

चंदा भी मुस्कुराया
तारा भी टिमटिमाया
लो फिर बसंत आया..!

सरसों को फिर उगाया
मन झूम -झूम के गाया
लो फिर बसंत आया...!

फूलों पे रंग छाया
      लो फिर बसंत आया --!!



मंगलवार, 29 जनवरी 2013

पुणे का सफ़र --- भाग 3


  पुणे का सफ़र --- भाग 3
( शिर्डी के साईं बाबा )





" मेरी आवारगी में  कुछ कसूर तुम्हारा भी है दोस्तों !
जब तुम्हारी याद आती है तो घर में अच्छा नहीं लगता-- !! "  

हम तो घुमने  के आदि है भाई ...



शिर्डी  का रेलवे -स्टेशन  


शाम के  4 बज गए अपने पुलिस कमिश्नर दोस्त (अशोक राय  ) से मिलकर हम चल दिए बस स्टेशन की तरफ ...अशोकजी ने हमें अपनी जीप में दो इंस्पेक्टरों के साथ बस- स्टॉप पंहुचा दिया--और अटेंड करने को भी बोल दिया क्योकिं हम को शिर्डी पंहुचने में रात के दस बज जाना था ओर हम दोनों अकेली थी । वैसे  तो शिर्डी में किसी प्रकार का डर नहीं था ..पर हमसे दूर बैठे घर वालों को कौन समझाए ....

बस स्टेशन पहुँचकर हम को शिर्डी की बस में बैठाकर दोनों पुलिस वाले चले गए ...शाम का वक्त था और ठंडी हवाए मन को सुकून दे रही थी ..हम भी ऐ सी बस में बैठे गप्पे मर रहे थे --फिल्म भी चल रही थी "तेज" और बस भी चल रही थी तेज ...रास्ते में कई  बार इंस्पेक्टर सावंत का फोन आता रहा की ...मेडम आप कहाँ तक आई है ..थोडा व़ी आई पी ट्रीटमेंट मिल गया था हा हा हा हा हा ...



 रात को करीब 10 बजे शिर्डी आया ...हमको लेने आये इंस्पेक्टर ने हमे रेलवे स्टेशन  पर बने रिटायरिंग रूम में पंहुचा दिया ...यह रूम भी अशोक जी ने पूना से ही हमारे लिए रिजर्व करवाया था ..किराया था सिर्फ 80 रूपये ...... पूरा रिटायरिंग रूम सुनसान पड़ा था ..क्योकि शिर्डी का यह रेलवे स्टेशन अभी नया ही बना है ...मैने और इंस्पेक्टर ने  रजिस्टर भरा और रूम पर चल दिए ..एक लड़का हमारा सामान रूम तक रख गया ..अब इंस्पेक्टर ने भी जाने की इजाजत चाही और कल  कोई सेवा हो तो याद कीजियेगा कहकर चल दिए .. मैने रूम का मुआवना किया  ..रूम बहुत ही साफ़ सुधरा और बड़ा था ..दो बेड अलग -अलग लगे थे साथ ही डायनिंग टेबल और सोफा रखे थे पास ही टी वी चालू था ...ऐ सी चल रहा था ...मुझे अपने पुलिस इंस्पेक्टर पापा की याद आ गई जिनके ज़माने में हमने ऐसे मज़े खूब किये थे ... खेर, हम फ्रेश हुए और कपडे बदलकर टी वी का प्रोग्राम देखने लगे

"टिन्न ...टिन्न ..टिन्न .. जब रूम की बेल बजी तो हम दोनों की धिग्धी बन गई भला रात के 11 बजे कौन होगा.हम दोनों का डर के मारे बुरा हाल हो रहा था ...रेखा ने कहा तुम पूछो कौन है ? मेरा तो वैसे ही डर के मारे प्राण निकले पड़े थे फिर भी अपने पुलिसिये खून को धिकारते हुए थोडा जोर से बोली -- 'कौन ?'

बाहर से एक लड़के की आवाज आई --"मेडम में हूँ ,आपके लिए चाय लाया हूँ " धत तेरे की ---हम  ख्वामखा डर रहे थे  ..दरवाजे पर एक 12 साल का लड़का खड़ा था  हाथो में ट्रे लिए हुए ..."मेडम साहेब बोल कर गए थे चाय के लिए " अबे तो एक घंटे बाद लाया है ..मैने आँखें दिखाते हुए कहा--- " मेडम दूध नहीं था वो जाकर शहर से लाया हूँ"उसने डरते हुए जवाब दिया । मैने भी उस मासूम को ज्यादा डराना  उचित नहीं समझा क्योकिं वाकई में शहर दूर था ....हमने चाय पी क्योकि उसकी बहुत तलब महसूस हो रही थी ...कुछ देर बाते करते हुए कब नींद आ गई पता ही नहीं चला .....
         
सुबह 8 बजे मेरी नींद खुली ..बाहर निकल कर देखा तो कोई नहीं था सारा रिटायरिंग हॉउस सुनसान पड़ा था मैंने किचन ढूंढ लिया और वहां  दो चाय का आर्डर दे आई ..थोड़ो ही देर में चाय आ गई तो हमारा काम हो गया ..हम दोनों तैयार होकर बाहर आ गए --हमारा सामान हमने वही रख दिया अब हमको शहर जाना था जो यहाँ से करीब 3-4 किलो मीटर था शायद -- हम रेलवे स्टेशन पर चल दिए क्योकि वहां  काफी टेम्पो और रिक्शे खड़े थे ...दो ट्रेन भी खड़ी थी ...हमने मुंबई जाने के लिए स्टेशन पर इनक्वारी  की तो मुंबई की किसी भी ट्रेन में जगह नहीं थी ..और लटककर जाना यानी बिना रिजर्वेशन के जाना मेरी तोहीन  थी ..इसलिए बस से ही मुंबई जायेगे यह सोचने के बाद एक खाली  टेम्पो में बैठ गए किराया था सिर्फ 10 रुपये---लो जी, आने के टाइम तो हम 100 रु देकर आये थे ...पहला चुना लगा ....खेर ,,,


रेलवे रेस्ट हाउस की कुछ झलकियाँ 



 पहुँच गए बाबा के मंदिर :-- यहाँ कई गेट है ...वी आई पी गेट भी है जहाँ से आप जल्दी दर्शन कर  के आ सकते है  --- पर हमें कोई जल्दी नहीं थी ...और हम सीधे -साधे  ढंग से ही दर्शन करना चाहते थे इसलिए इंस्पेक्टर साहेब को सुबह नहीं बुलाया ....
अब हमने प्रसाद ख़रीदा तो लगा दूसरा चुना ..सिर्फ प्रसाद का ही उसने हमारा 495 का बिल बना दिया ..अरे,यह क्या दुकानदार ने न जाने क्या-क्या रख दिया था ...'अरे भाई .साईं ने कभी खीर नहीं खाई तुम उसको पैड़े खिला रहे हो ' हा हा हा हा

हुत सारा सामान निकल कर फैंका और सिर्फ मुरमुरे और रेवड़ी ली जो साईं को बहुत अजीज थी ..
हमारे मोबाईल और कैमरा वही जमा कर दिए गए क्योकि हमे डरा दिया था की आगे चेक पोस्ट पर चेक हो गया तो वापस आना पड़ेगा ...हमने भी दुकानदार के अंडर में सारी चीज़े सेफ  में  जमा की और ताला लगाकर चाबी अपने अंडर  में की और चल पड़े मंदिर के  अन्दर ....
इस कारण आगे कोई फोटू नहीं है ...


प्रवेश द्वार  नम्बर 3  फेमिली वालो के लिए 



हम 3 नंबर गेट से अन्दर गए जिसे दुकानदार ने कहा था की यहाँ भीड़ नहीं होती पर ऐसा कुछ नहीं था यहाँ काफी भीड़ थी हम भी नंबर लगाकर खड़े रहे ..साइड में बेन्चेस भी लगी थी प्योर स्टेनलेस स्टील की जहाँ आप यदि थक जाये तो बैठ सकते है ..पर मैंने प्रतिज्ञा  की थी की जब तक साईं के दर्शन न होगे मैं बैठुगी नहीं ...हालाकि यह भीष्म प्रतिज्ञा नहीं थी पर अपने राम ने सोचा की खड़े रहते है जब ज्यादा थक जायेगे तो बैठ  जायेगे ...पर 2 घंटे में नंबर आ ही गया और हम अलग -अलग लाईनो से गुजरते रहे ...पहली बार सोचा की गलती की ज्यादा भक्त बनने की  उस इंस्पेक्टर को बुला लेते और रोब से दर्शन करते ....

खेर ,एक बड़े से हाल में आखिर साईं बाबा के दर्शन हो ही गए ....सोने से जड़े हुए साईं बाबा शायद कसमसा रहे थे ..चारो और पुजारियों से धिरे हुए थे और वो सबका लाया हुआ प्रसाद और फूल लगभग फैंक  रहे थे--जिस प्रसाद और फूलो को  मैं पिछले 2 घंटे से हाथो में उठाये हुई थी जिसके कारण मेरा हाथ भी दर्द करने लगा था , उन लोगो ने निर्दयता से फैंक दिया ....खेर, बड़े -बड़े मंदिरों में ऐसी छोटी -छोटी बाते होती  रहती है ....



साईं बाबा का दरबार ( गुगल  बाबा के सोजन्य से )


पर साईं के दर्शन  करते ही मैं सबकुछ भूल गई ...ऐसा लगा किसी और ही दुनियां में आ गई हूँ  ....आँखों से आंसूओ की लड़ी बह रही थी ..और मैं अपनी सुधबुध खो चुकी थी ...एक सेवादार ने जब मेरा हाथ पकड़कर मूर्ति के पास से हटाना चाह तो  मैने उसे कडक आँखों से  ऐसे देखा की वो मुझे छोड़कर दूसरी तरफ चला गया ...मैं  बहुत आस्तिक हूँ ऐसा नहीं है .. न मुझे कभी किसी मंदिर या गुरूद्वारे में जाकर ऐसा कुछ महसूस होता है ..साधारण रूप से मैने हमेशा नार्मल होकर ही भगवान् के दर्शन किये है ,यहाँ भी मैं 2 बार आ चुकी हूँ  पर इस बार पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा की मैं दुसरे ही लोक में आ गई हूँ  ...आराम से मैं निचे बैठकर जी भरकर  साईं के दर्शन किये ,जब तृप्त हो गई तो वापस चल दी बाहर की और .....


बाबा का असली बहुत पुराना फोटू ( गूगल से  ....


सुबह से कुछ खाया नहीं था ---मेरी आदत है किसी धार्मिक स्थान पर जाती हूँ तो पहले दर्शन करती हूँ  फिर कुछ खाती हूँ ---तो जोरदार भूख लग आई थी हमने सुन रखा था की साईं बाबा का भंडारा होता है तो हम भंडारा ढूँढने लगे ..पता चला की यहाँ से  थोड़ी दूर ही है ...तो हम चल दिए, रास्ते  में  दूकान से  मोबाईल और कैमरा लिया --दूकान वाले को 2-4  गालियाँ दी की हमारी सारी पूजन सामग्री व्यर्थ गई ,पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ा उसने हमें देखा तक नहीं ..खेर,

थोड़ी दूर प्रसाद के लड्डू मिल रहे थे ...मोतीचूर के लड्डू देखकर नियत खराब हो गई ..अब लाईन में लग गए ....एक आदमी को 2 ही पैकेट मिल रहे थे 10 रु का एक पैकेट .. पैकेट में सिर्फ 3 लड्डू ! सबको प्रसाद तो देना ही पड़ेगा ..हम इंडियंस की आदत होती है जब भी किसी धार्मिक स्थान में जाओ प्रसाद जरुर खरीदते है ....
मैं  भी तीन बार लाईन में लगी  और 6 पैकेट खरीद लिए ..देशी घी के लड्डू भला इतने सस्ते मिलते है क्या ? वैसे, पिछले दिनों साईं बाबा के यहाँ नकली देशी घी का जो जखीरा मिला था उसे शायद सब जानते है ..पापी पेट का सवाल है भाई ....इसी कारण शायद मैं चोथी बार लाईन में नहीं लगी ...हा हा हा हा

लड्डू लेकर हम चल दिए ..भंडारा ढूँढने ....मंदिर के बाहर काफी अमरुद बेचने वाले खड़े थे ..कई ढेरियाँ बनी हुई थी ..हमने भी 2 ढेरियाँ खरीद ली ..60 रु में ! काफी ताजा अमरुद दिख रहे थे  ....   


ताजा -ताजा अमरुद हमारे मध्य प्रदेश  में इसे जाम भी बोलते है  


पैदल चलते - चलते जान पर बन आई ...ऊपर से इतने अमरुद का बोझ ..लालच के कारण 2 ढेरिया  ले ली जो कम से कम 3 किलो से ज्यादा ही होगी ...ऊपर से गर्मी अलग और भूख  सता रही थी सो अलग--खेर, थोडा चलने के बाद आखिर हमको वो स्थान दिख ही गया .." श्री साईं प्रसादालय" । यह काफी सुंदर और काफी बड़े स्थान में था ..साफ़ सुधरा था ..बीच में बड़ा सा बगीचा भी था पर उसमें किसी को  जाने की इजाजत नहीं थी  साईं बाबा का बड़ा सा लंगर बनाते हुए एक स्टेचू लगा था ...आप भी देखे ...



प्रसादालय के बाहर बड़े से देग में साईं बाबा लंगर तैयार करते हुए 



खुबसूरत  बगीचा  


और यह मैं 

मैं और मेरी सहेली रेखा ...अमरुद और लड्डू ओ से लदे हुए   

हम अन्दर की तरफ चल पड़े ..किसी ने बताया था की यहाँ 10 रु में रसीद कटती  है और खाना मिलता है..हमने काउंटर पर जाकर पूछा तो मालुम हुआ अब यहाँ रसीद नहीं कटती सबको फ्री  में खाना खिलाया जाता है खेर , हम  चल पड़े --अन्दर का हाल काफी बड़ा था करीने से टेबल और कुर्सिय लगी थी ..भीड़ भी नहीं थी जबकि मुझे लगा था की यहाँ नीचे बैठने की व्यवस्था होगी जैसी की आमतौर पर होती है ..हम भी एक टेबल और कुर्सी पर बैठ गए ...वहाँ स्टील की थालीयां पहले से ही  लगी थी उनमें एक- एक खोपरे की बर्फी और नमक व् सिकी हुई लाल मिर्च रखी  हुई थी ...खाना बहुत ही स्वादिष्ट था ....

मैं और रेखा ..खाने का इन्तजार 


लंगर -हाल ...करीने से सजी टेबल -कुर्सी ..कोई भागमभाग नहीं 


साईं का खाना (प्रसाद )


यहाँ हमे उस दिन रोटी ,दाल , काले चने की सब्जी ,  आलू -बेगन  की सब्जी और चावल का लंगर मिला ...खोपरे की बर्फी पहले ही मैं आधी खा चुकी थी -----:)

खान खाने से पेट के साथ ही मन भी तृप्त हो गया था अब हम चल दिए वहां से वापस बाज़ार घूमते हुए अपने रेस्ट हॉउस ..थोडा आराम करने का मन था पर रेखा ने कहा की यही से बॉम्बे की बस पकड़ते है शाम तक पहुँच जायेगे तो उसका यह आइडिया पसंद आया ..हमने वही से  एक ऑटो किया जो हमारा  सामान रेलवे स्टेशन  से लेकर हमें बस अड्डे तक छोड़ दे ....ऑटो ने किराया लिया 150 रु .....तीसरा चुना ..
यहाँ एक बात और हो गई हमारे सारे पैसे ख़त्म हो गए थे अब वापसी का ऐ सी का कितना किराया होगा हमें पता नहीं था हमने तुरंत स्टेट बैंक का ऐ टी एम ढूँढा और पैसे निकलने पहुँचे पर यह क्या यहाँ तो ऐ टी एम ही बंद अब दुसरे बैंक की तरफ दौड़  लगाई पर वो भी बंद ,पता चला की सर्वर ही डाउन है पता नहीं कब ठीक होगा यह था चौथा चुना ....बैंक ने लगा दिया --अब क्या करे ..पूना में जो खरीदारी की थी उस पर गुस्सा आ रहा था --ऐसा ही  एक बार मेरे साथ डलहोजी में हुआ था ....अब हम दोनों ने पर्स खंगोले चोर जेबों से पैसे इक्कठे किये तो 550 रु हुए यानी यदि 250 रु किराया हुआ तो हम आराम से ऐ सी बस में जा सकते है और 50 रु का नाश्ता भी कर सकते है ...


बाज़ार की रौनक     

जय हो साईं बाबा की हमें कोई ऐ सी बस नहीं मिली  ..बस अड्डे पर  उस समय कोई बस थी ही नहीं अचानक एक बस हमारे पास आकर रुकी नान ऐ सी थी मुंबई -मुंबई चिल्ला रहा था हमने तुरंत कंडक्टर से किराया पूछा तो उसने 180 रु बताया ..मुझे तो हैरानी हुई की हमारी परेशानी साईं ने  इतनी जल्दी दूर कैसे कर दी .....जय हो ....हम तुरंत दौड़ कर बस में बैठ गए ...अंधा क्या मांगे दो आँखें हा हा हा हा हा हा  


वापसी ... हमारी शाही बस में ...हा हा हा 


और फिर हमने बस पकड ली ..वापसी के लिए ,जबकि बॉम्बे से पूना का  ऐ सी किराया था 250 रु। और पूना से शिर्डी का 200 रु यानी कुल 450 रु और वापसी में सिर्फ 180 रु। हलकी बूंदाबांदी भी हो रही थी और मौसम भी बड़ा  खुशगवार हो गया था    


वापसी का नजारा 


शिव के लिंग के सामान पहाड़ियां .यहाँ की विशेषता है 


रास्ते में हल्की बूंदाबांदी चालू थी 


रात को 10 बजे हम बॉम्बे पहुँच गए ...सकुशल और नाश्ता भी नहीं किया ...सिर्फ चाय ही पी थी..
साईं की समाधी (गूगल से ...



* जय हो साईं बाबा *