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मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

कर्नाटक डायरी#15


#कर्नाटक-डायरी
#मैसूर -यात्रा
#भाग=15
#27 मार्च 2018

कल हमने शुकावन की यात्रा की थी आज हम मैसूर का फ़ेमस चर्च देखने दोपहर के बाद निकल पड़े ,क्योंकि रात को इसका स्वरूप निखरकर आता हैं परंतु हम रात तक नही रुक सके और शाम को ही लौट आये।
मुझे अफसोस हुआ क्योंकि हमको दोपहर की जगह शाम को निकलना था,परन्तु इसके बारे में ज्यादा जानकारी न होने के कारण हम शाम तक वापस लौट आये थे।

ख़ेर, हमने ओला मंगवाई ओर चर्च देखने निकल पड़े।मैसूर महल से कुछ आगे गलियों से गुजरते हुए हम चर्च पहुँच गए।इसके ऊंचे गुम्मद हमको दूर से ही नजर आ रहे थे ,नजदीक देखा तो पता चला कि इसकी मरम्मत चल रही हैं आधा चर्च हरे कपड़े से ढंका हुआ था। हम अंदर चल पड़े।

सेंट Philomena कैथेड्रल  एक कैथोलिक चर्च या गिरजाघर है। पूरा नाम सेंट जोसेफ और सेंट फिलोमेना कैथेड्रल है । इसे सेंट जोसेफ कैथेड्रल के नाम से भी जाना जाता है । 

भारत में सबसे बड़े चर्चों में से एक हैं फेलोमीन्स चर्च!  यह राजसी चर्च है। यह एशिया का दूसरा सबसे बड़ा चर्च  है। सेंट फिलोमेन चर्च न केवल अपनी स्थापत्य सुंदरता और धार्मिक महत्व के लिए जाना जाता है बल्कि
यह चर्च शहर के कैथलिक संप्रदाय   को मैसूर शासक द्वारा दिया गया  एक उपहार स्वरूप हैं।

यह चर्च मैसूर महल से महज 2 km के दायरे में पड़ता हैं। 

सेंट फिलोमेना चर्च का इतिहास:--
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1933 में महाराजा कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ के शासनकाल के दौरान एक छोटा चर्च बनाया गया था।
1926 में, टीआरवी थम्बो चेट्टी, जो दीवान और मैसूर के मुख्य न्यायाधीश थे, ने पीटर पिसाणी, ईस्ट इंडीज के अपोस्टोलिक डेलीगेट से सेंट फिलोमेना के अवशेष प्राप्त किया, जिसे विधिवत रूप से फादर चेत को सुपुर्त कर दिया गया, जिन्होंने तब मैसूर महाराजा से संत के सम्मान में एक चर्च बनाने का अनुरोध किया था। उनके अनुरोध पर, मैसूर राजा कृष्णराजेंद्र वोडेयार बहादुर चतुर्थ ने इस चर्च के निर्माण की अनुमति दी। इसलिए, 1933 में, नए चर्च की नींव रखी गई। निर्माण के 8 वर्षों के बाद, चर्च ने 1941 में काम करना शुरू कर दिया। 

कहा जाता है कि सेंट फिलोमेना ग्रीस के एक छोटे से राज्य के सम्राट की बेटी थी। सम्राट संतानहीन था, इसलिए दंपति ने एक बच्चे के लिए भगवान से प्रार्थना की। एक साल बाद, एक बेटी उनके पास पैदा हुई, जिसे उन्होंने फिलोमेना नाम दिया। बचपन से ही फिलोमेना ईश्वर की भक्त थी । जब वह 13 साल की थी, तो उसके पिता उसे अपने साथ रोम ले गए थे, जहां वह सम्राट डायोक्लेटियन की मदद लेने गया था। फिलोमेना को देखकर, सम्राट उसकी सुंदरता का दीवाना हो गया उसने फ्लोमीना से शादी करने की इच्छा व्यक्त की।  लेकिन फिलोमेना ईश्वर की भक्ति में लीन थी तो उसने  सम्राट से शादी करने से इनकार कर दिया। सम्राट उसकी अस्वीकृति को सहन नही कर पाया और उसने उसको भयंकर यातना दी और उसे निष्पादित करने के आदेश दिए।

सेंट फिलोमेना चर्च की वास्तुकला:--
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 विक्टोरियन शैली में निर्मित, यह चर्च जर्मनी के कोलोन कैथेड्रल चर्च से मिलता हैं। इसे एक फ्रांसीसी कलाकार डेली द्वारा डिजाइन किया गया था। इस चर्च को एक क्रॉस के आकार में बनाया गया है, साथ ही मण्डली हॉल को 'नेव' के रूप में भी जाना जाता है जो क्रॉस का सबसे लंबा अंत है, ट्रेसीपर्स क्रॉस की दो भुजाएं हैं, क्रॉसिंग और वेदी ऊपरी भाग है या क्रॉस का छोटा हिस्सा।

चर्च का मुख्य आकर्षण 175 फीट की ऊँचाई वाले इसके दो सर हैं यानी कि 2 स्तम्भ हैं जिन्हें दूर से भी देखा जा सकता है। स्पियर्स का डिज़ाइन सेंट पैट्रिक चर्च के समान है जो न्यूयॉर्क में स्थित है। प्रत्येक शिखर पर 12 फीट की ऊंचाई के साथ एक क्रॉस है। वेदी जटिल रूप से तैयार किए गए संगमरमर और सेंट फिलोमेना की मूर्ति के साथ एक मनोरम दृश्य प्रस्तुत करती है जिसे फ्रांस से लाया गया था। अलार में आपको सेंट फिलोमेना की प्रतिमाएं और वेदी के नीचे, भूमिगत हॉल में, सेंट फिलोमेना के अवशेष मिलेंगे जो आज भी सुरक्षित रखे गए हैं।

चर्च के हॉल में 800 लोगों के करीब बैठने की क्षमता है। गर्भगृह अपनी सन ग्लास खिड़कियों के साथ अधिक सुंदर दिखता हैं, जो येसु के जीवन के विभिन्न चरणों को दर्शाता हैं जैसे कि जन्म, अंतिम भोज, क्रूस पे लटकाने ओर पुनर्जन्म के दृश्यों को! चर्च के सामने तीन छोटे छोटे दरवाजे हैं, जो आपको प्रार्थना हॉल में ले जाते हैं। चर्च के स्तंभों पर फूलों की सुंदर कलाकृति की गई हैं।

सेंट फिलोमेना चर्च की टाइमिंग:--
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आप शाम 6 बजे तक चर्च का दौरा कर सकते हैं क्योंकि सेंट फिलोमेना चर्च की टाइमिंग सुबह 05.00 बजे से शाम 06.00 बजे तक है। शाम को चर्च को देखना अच्छा लगता हैं। क्योंकि रात को चर्च को  रोशन किया जाता हैं।
 हर रविवार और त्यौहार पर, विशेष सामूहिक आयोजन किया जाता है, जबकि हर रोज़ सुबह और शाम को ही सामूहिक आयोजन होता  है। 11 अगस्त को चर्च में वार्षिक भोज का आयोजन किया जाता है। चर्च हॉल के अंदर फॉटोग्राफी की अनुमति नहीं है।(लेकिन मैंने चुपके से खींच लिए थे😂😂😂)

1977 की हिंदी बॉलीवुड फिल्म "अमर अकबर एंथोनी" की शूटिंग सेंट फिलोमेना चर्च के अंदर ही की गई थी।

चर्च वाकई में खूबसूरत डिजाइन किए हुए था अंदर की कलाकृति ओर उसके डार्क कलर देखने लायक थे रंगीन कांच से आती रोशनी बड़ी सुंदर दिख रही थी,वही से एक रास्ता नीचे गर्भगृह में गया हुआ था हम रम्प द्वारा नीचे आ गए यहां काफी ठंडक थी दूर एक मोमबती टिमटिमा रही थी,चर्च जाना और चर्च देखना मुझे कभी भी पसन्द नही आता, फिर भी फ़ेमस जगह देखने जरूर जाती हूँ। लोग कहते है यहां शांति होती हैं लेकिन मुझे ये शांति मरघट के सन्नाटे जैसी लगती हैं ।
ख़ेर,नीचे गर्भ गृह में सेंट फ्लोमिनो के अवशेष थे पर हमने नजदीक से नही देखे केयोकि वहां हमारे अलावा और कोई नही था ,मुझे घबराहट  होने लगी और हम सब तुरंत ऊपर आ गए ।
वहां से निकलकर हम बाहर आ गए चर्च के नजदीक ही कोई गुफा की तरह बनी हुई थी हम उधर चल पड़े,अंदर मोमबत्तियां जल रही थी । ये गुफा बनाने का क्या तुक हैं हमको कुछ समझ नही आया।
गुफा से बाहर आकर हमको एक स्कूल नजर आया वहां कोई फैंसी प्रोग्राम चल रहा था।क्योकि बच्चे फैंसी ड्रेस में घूम रहे थे।
शाम होने वाली थी अब हमने यहां से चलने का मन बना लिया ।क्योकि रात होने में काफी टाइम बाकी था।इसलिए रोशनी देखने का काम फिर कभी पर टाल कर हम घर की तरफ चल दिये।
वैसे ये चर्च एक बार देखने लायक हैं।
क्रमशः...








कर्नाटक डायरी #14

कर्नाटक-डायरी
#मैसूर -यात्रा
#भाग=14
#26 मार्च 2018

कुर्ग से आकर हमने 1 दिन आराम किया और दूसरे दिन चल दिये वापस मैसूर की सैर पर..
आज दोपहर का खाना खाकर हमने औला -कार मंगवाई ओर हम चल दिये "शुकावन" देखने.
मैसूर में ही स्थित हैं शुकावन पार्क।

शुकावन यानी शुक वाना :--

2000 से अधिक पक्षियों का घर हैं  शुकावन ....प्रकृति प्रेमियों के लिए ये वरदान स्वरूप हैं यहां 450 से अधिक विभिन्न प्रजातियों के पक्षी रहते हैं और यह 1 एकड़ के क्षेत्र में फैला हैं.. 50 मीटर ऊंची एवियरी गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज हैं.. इस एवियरी  (पक्षियों के लिए खुला आकाश) में सबसे अधिक पक्षी प्रजातियों को रखने का रिकॉर्ड  है। यह एक अनोखा पार्क हैं जिसे आमतौर पर तोता पार्क के रूप में जाना जाता है...।
ये श्री गणपति सचिदानंद आश्रम हैं इसमें अवधूत दत्त पीठम का एक हिस्सा है, और यह आश्रम घायल और परित्यक्त पक्षियों के पुनर्वास का भी केंद्र  हैं। इस खूबसूरत बाड़े में   तोते की कई दुर्लभ प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

ये आश्रम सुबह 9:30 से 12:30 तक ओर 3:30 से 5:30 तक खुला रहता है। ये बुधवार को बन्द रहता हैं और इसकी एंट्री फ्री हैं।

आश्रम के मेन गेट से अंदर आकर हमको काफी खुला स्थान दिखाई दिया वही हमको एक पुरानी रॉल्स रायल कार एक कांच के केबिन में रखी दिखाई दी आगे जाकर दूर से हमको बजरंगबली की काफी बड़ी ओर ऊंची मूर्ति दिखाई दे रही थी, नजदीक जाकर देखा तो बहुत ही सुंदर हनुमानजी का मन्दिर नजर आया...मन्दिर में इस समय कोई नही था..थोड़ा आगे बढ़ने पर भगवान राम लक्ष्मण और सीताजी का भी मन्दिर दिखाई दिया जो बहुत ही खूबसूरत बना हुआ था। लेकिन वहां फोटू खींचना मना था इसलिए कोई फोटू नही खींच सकी।
आश्रम के अंदर पहुंचकर देखा कि ये बहुत ही सुन्दर पार्क बना हुआ हैं।
अंदर पक्षियों की सुंदर सुंदर मूर्तिया लगी हुई थी..आश्रम काफी साफ सुधरा था...अब हम उस जगह पर आए जिधर पिंजरों में बड़े बड़े विदेशी  तोते रक्खे हुए थे उनको देखते हुए हम अंदर की तरफ बढ़ गए, अंदर बड़े बड़े हाल बने हुए थे जिनमें तरह-तरह के पक्षी उड़ रहे थे । प्रत्येक हॉल में लाल,पीले,काले पक्षी उड़ रहे थे ...अगर आप इन पक्षियों के साथ अंदर जाकर फोटू खिंचवाते हो तो छोटी चिड़ियों के साथ 100 ₹ ओर बड़े विदेशी तोतो के साथ 150₹ का टिकिट कटवाना  पड़ेगा और  आप पिंजडे के अंदर जाकर दाना खिलाते हुए फोटू खिंचवा सकते हो।उस हालत में पंछी आपको घेर लेगे ओर आपके सर पर ,कंधे पर ओर हाथ में बैठ जायेगे। हमने भी एक फोटू खिंचवाया ओर रोमांचक अनुभव प्राप्त किया।जब पक्षी आपको चोंच मारते है और आपके हाथों से दाना चुगते हैं तो जो आनंद की अनुभूति होती हैं वो अद्वितीय हैं।

आश्रम में बोनसाई पार्क भी था,जिसमें एक से बढ़कर एक बोनसाई पेड़ लगे थे लेकिन उसका  टिकिट था परंतु हम देखने नही गए,इसके साथ ही एक संग्रहालय भी था लेकिन उसका भी टिकिट था परन्तु हम उसको भी देखने नही गए।

अगर आप पक्षी -प्रेमी हैं तो अपनी मैसूर यात्रा में आप शुकावन देखने जरूर जाये।
शुकावन में चलते चलते हम थक गए थे इसलिए फटाफट ओला पकड़कर हम घर को चल दिये।
क्रमशः....







रविवार, 27 दिसंबर 2020

रेलगाड़ी एक शब्द

रेलगाड़ी
––––––-

#रेल गाड़ी रेल गाड़ी 
छुकछुक छुकछुक छुकछुक
बीच वाले स्टेशन बोले
रुक रुक रुक रुक रुक रुक....।।
बहुत ही सरल शब्दों में मैंने अपने जीवन की ये उपलब्धि लिखी हैं।

बचपन मे रेल शब्द मेरे लिए किसी अचंभे से कम नही था.....उसका एकसाथ भागना, सर से धुंए का निकलना ओर छुकछुक की मध्यम आवाज़ के साथ सीटी का बजना , भाप का चारों ओर फैलना, बड़े बड़े लोहे के पहिये ओर सबसे ज्यादा उसमे टॉयलेट का बना होना मेरे लिए बहुत ही आश्चर्य वाली बात थी।
 ट्रेन की खिड़की से बाहर झांकना मेरे लिए आज भी कौतुहल का विषय है।

उन दिनों हमारे शहर #इंदौर में ज्यादा ट्रेनें नही चलती थी। छोटी लाईन होती थी जिसको #मीटर_गेज कहते है । दो ही छोटी लाईने थी । ओर दो ही प्लेटफार्म  थे।
जब भी मैं #रीगल_टॉकीज में या #यशवंत_टॉकीज में कोई फ़िल्म देखने माँ और मौसी के साथ जाती थी तो ओवरब्रिज से गुजरते हुए उत्सुकतावश पुल से नीचे जरूर देखती थी क्योंकि यही मुझे रेल की टेढ़ीमेढ़ी पटरियां दिखाई देती थी.... कभी किस्मत अच्छी हो तो कोई ट्रेन भी गुजरती हुई दिखाई दे जाती थी ....तब सोचती थी ये किधर जाती होगी ?

बाद में जब मौसी ने अपना जेलरोड का मकान बेचकर #राजेन्द्र_नगर का मकान खरीदा तो हम मौसी के घर #राजेंद_नगर ट्रेन से  जाने लगे, उन दिनों राजेन्द्र नगर  बस का रूट नही था। 

तब खिड़की के पास बैठकर भागते हुए पेडों को देखना मुझे बहुत अजीब लगता था ....क्यो सब भाग रहे है मैं यही सोचा करती थी ? कई बार तो मेरी आंखों में कोयला  भी गिर जाता था तो आंख रगड़कर फिर  बाहर देखने का लोभ छोड़ नही पाती थी  .....तब उस खिड़की के लिए हम भाई बहनों में फ्री स्टाईल कुश्ती हो जाया करती थी ☺ तब वो आधे घण्टे का सफर ऐसा लगता था मानो कोई जंग जीत कर आ रहे हो....क्योकि चेहरा भी काला हो जाता था और कपड़ों पर कोयले के छोटे छोटे कण बिखरे पड़े रहते थे।

उन दिनो कोयले वाले स्टीम इंजन चला करते थे और मीटरगेज की गाड़ियों में साइड की सीट नही होती थी ....सिर्फ लकड़ी की बेंचेस होती थी वो भी पीले रंग से पुती हुई।
उन दिनों थर्ड क्लास की सीटे होती थी ....जो बाद में रेल्वे ने बन्द कर दी ... Ac कूपे तो शायद होते ही नही थे प्रथम श्रेणी होती होगी पर मैंने देखी नही थी ....मुझे लकड़ी की बेंच ही याद है।

उन दिनों मैं अक्सर ट्रेन से मेरे पापा के गहरे दोस्त ठाकुर साहब के घर #फतेहाबाद भी जाती थी .... उन दिनो ट्रेन में कुछ बिकता नही था  सिर्फ फतेहाबाद में #गुलाबजामुन मिलते थे ।वहां के गुलाबजामुन बड़े ही रसभरे होते थे तब वो मिट्टी के सकोरे में मिलते थे जिनकी खुशबू से ही मन तृप्त हो जाया करता था। 

शादी के बाद जब रतलाम से छोटी लाईन की  रेलगाड़ी पकड़ती थी तो गरम -गरम गुलाबजामुन का सकोरा जरूर अपने घर इंदौर ले जाती थी ।
फतेहाबाद जिसे मैं फतियाबाद बोलती थी☺ ये इंदौर से रतलाम के बीच छोटी लाईन पर आने वाला स्टेशन है.... शायद अभी भी आता होगा लेकिन सन 1983 के बाद फिर मैं कभी उधर से नही आई .... क्योकि फिर बड़ी लाईन बन गई और मेरा सफर बड़ी लाईन से नागदा वाया उज्जैन होते हुए इंदौर तक सिमिट गया।

हा तो मैं कह रही थी कि बचपन मे 5-6 साल तक तो मैंने ये #लोहपथगामिनी को देखा तक नही था ....सिनेमा हॉल में किसी डॉक्यूमेंट्री में देखा हो तो याद नही था ....उन दिनों स्कूल में भी बच्चे को 7 साल का होने के बाद ही  #कच्ची_पहली में बिठाया जाता था तो पुस्तकों में भी देखा नही था ।
फिर एक दिंन जब मैं सावन सोमवार को घण्टाघर गई थी ....
तब किसी बड़े ने जोश भरे शब्दो मे बोला था कि---- #किसी_ने_रेलगाड़ी_देखी_है ? तब हम सब बच्चे एक दूसरे का मुंह टुकुर टुकुर देख रहे थे-- 'ये रेलगाड़ी क्या बला है ? तब हम सब बच्चो ने पहली बार ओवरब्रिज से नीचे झांककर पटरियों को देखा था .....उस समय कोई ट्रेन नही गुजर रही थी इसलिए अगली बार देखने का प्रोग्राम बनाया गया.....
दूसरे दिन किसी को बगैर बोले हम सब जेलरोड से दौड़ते हुए घण्टाघर पहुंच गए और ओवरब्रिज से लटककर खड़े हो गए .... तब करीब आधा घण्टा गुजर गया पर कोई  ट्रेन नही आई तो हम सब बड़ो के साथ ( हमसे थोड़े बड़े बच्चे) हाथ पकड़कर सीधे रेल्वेस्टेशन ही चल पड़े थे  तब पहली बार #रेल्वे_स्टेशन और इस #रेलगाड़ी_के_दर्शन किये...
 उस समय इतना बड़ा काला इंजन देखकर आंखें फ़टी की फटी रह गई थी फिर उसके पीछे लाल रंग के डिब्बे अनोखे लग रहे थे हमने गिने तो पूरे सात डिब्बे थे। काला इंजन ओर उसके पीछे लाल  डिब्बे बड़े ही मोहक लग रहे थे।

फिर तो अक्सर रेलगाड़ी देखने स्टेशन चले जाया करते थे । उन दिनों इंदौर का जेलरोड (मेन रोड) इतना व्यस्त नही होता था..
कुछ साइकिले ओर तांगे ही चलते थे ऑटो ओर कारे बहुत कम होती थी .....हम बच्चे बड़े आराम से रोड पर दौड़ते थे।

फिर तो हमारे मोहल्ले में रोज शाम को  रेलगाड़ी वाला खेल शुरू हो गया .... हम सब एक दूसरे के फ्रॉक या बनियान पकड़कर रेल बन जाते और आगे वाला इंजन *कुकू कु कु कुकू कु कु*  हमारी रेलगाड़ी चलती रहती।☺

रेल के सफर के लिए मैं हमेशा तरसा  करती थी (तब क्या पता था कि एक दिन इसी लोकल (ट्रेन) में जिंदगी गुजरेगी) क्योकि हमलोग अक्सर बस से ही आया जाया करते थे। 
जब मम्मी की डेथ के बाद मैं मनासा ओर मन्दसौर आ गई तो यहा भी रेलगाड़ी देखने को नही मिली.....क्योकि यहां रेल्वे स्टेशन था ही नही (अब बन गया है) तब हम बस से ही इंदौर से मन्दसौर आते जात्ते थे। 

बचपन से लेकर जवानी तक रेल के प्रति मेरा मोह बरकरार रहा  रेल के प्रति मेरा जो मोह था वो इसी बात से जाहिर होता है कि जब मेरे मिस्टर का रिश्ता आया तो मैंने तुरंत एक्सेप्ट कर लिया क्योंकि वो रेल्वे में टी टी थे ,उस समय ये भी पता नही था कि ये #टीटी होता क्या है ? सिर्फ ये पता था कि रेल्वे में नोकरी करते है। ☺जबकि उन दिनों मैं BA कर रही थी लेकिन, मेरे रेल के सफर का ज्ञान उस समय भी सिर्फ राजेंन्द्र नगर और फतियााबाद तक ही सीमित था। मैंने तब तक कोई भी बड़ी यात्रा ट्रेन से नही की थी। तब घूमने की प्रवृत्ति के कारण मुझे ये प्रस्ताव वैसे भी मन माफिक लग रहा था। 

जब मेरी शादी 1979 में हुई तब  ट्रेन से कोटा जाने का सौभाग्य मिला....ओर यही से मेरा #रेलगाड़ी_का_स्वर्णिम_सफर शुरू हुआ। 

अब तो मैं इतनी दूर की ट्रेन यात्रा कर चुकी हूं जिसकी कोई गिनती नही लेकिन आज भी मुझे सेकंड क्लास की खिड़की वाली सीट मिल जाये तो ऐसा लगता है मानो #खजाना मिल गया हो ....आज भी मुझे रात को ट्रेन में नींद नही आती अगर खिड़की वाली सीट मिल जाती है तो रात को भी खिड़की के बाहर ही मेरी निगाहें दौड़ती रहती है , काला घना अंधेरा, बिजली के बल्ब, आने वाले स्टेशन, उनके नाम , वहां खड़े मुसाफिर ओर दुकाने देखना  मुझे  अच्छा लगता है ....आज भी मुझे ट्रेन का सफर सबसे सुहावना ओर कम्फ़र्टेबल लगता है.....जब कोई कहता है कि फ़लाना जगह 2 दिन में आएगी ? या हमारी गाड़ी 3 दिन में पहुँचएगी ? हम बोर हो जायेगे ? तो मुझे हँसी आती है क्योंकि मुझे ट्रेन का सफर हमेशा से इंजॉय... एक्साइटमेंट... ओर मस्ती भरा ही लगता है।

आशा है मेरी छुकछुक गाड़ी आप सबको पसन्द आई होगी।


शनिवार, 12 दिसंबर 2020

कर्नाटक डायरी#13

कर्नाटक-डायरी
#मैसूर -यात्रा
#भाग=13
#कुर्ग-यात्रा (अंतिम क़िस्त)
#भाग=6
#24 मार्च 2018

सुबह होटल से निकलकर हमने कुर्ग के किला ओर महल को देखकर अब वापसी की राह पकड़ी ..आगे...

कुर्ग का मौसम बड़ा ही सुहावना था ठंडी हवा अभी भी चल रही थी हमने स्वेटर लाद रखे थे लेकिन जैसे जैसे हम मडिकेरी से नीचे उतर रहे थे थोड़ी गर्मी का अहसास हो रहा था,अब हम मडिकेरी से 36 km दूर हारंगी बांध की ओर उड़ रहे थे।

जब हम हारंगी डैम पहुँचे तो धूप अपनी चरम सीमा पर थी,काफी गर्मी लग रही थी, जितना ठंडा कुर्ग था उतना ही गरम हारंगी था😊

हारंगी डैम के दरवाजे से पहले ही जो गेट आया वहां 2 घोड़ों की प्रतिमा हमारा स्वागत करती हुई लगी थी। हिरंगी डैम में प्रवेश करने से पहले एक बड़ा सा गेट हमारा इंतजार कर रहा था,हमने भी उसका वेलकम का जवाब वहां एक फोटू खिंचकर दिया ओर अंदर प्रवेश किया, ये एक लंबा चौड़ा गार्डन था जो दूर तक फैला हुआ था और इस समय वीरान पड़ा हुआ था।

हारंगी अपने ट्री हाउसों के लिए लोकप्रिय है। उत्तरी कोडगु के कुशलनगर के समीप स्थित हारंगी बांध एक दर्शनीय पिकनिक स्थल है। कावेरी नदी पर बना यह बांध 2775 फीट लंबा और 174 फीट ऊंचा है।

बाग में हमारे सिवा कोई नही था। हमारी तरह सभी उल्लू थोड़ी थे जो इतनी गर्मी और धूप में बगीचे की सैर को आते, ख़ेर, इतनी देर में बच्चों ने एक छायादार केबिन देख लिया जो काफी ऊंचे स्थान पर था और चारो ओर से खुला हुआ था ,हम तेजी से उधर दौड़ पड़े मानो हमको मुद्दतो बाद लोकल में सीट मिली हो😊

वहां पहुंचकर थोड़ी राहत की सांस ली पानी वगैरा पीकर हम टनटन्ना गए अब हमने चारों ओर निगाह घुमाई ,यहां से डैम पूरा दिख रहा था धूप होने के बावजूद ठंडी हवा चल रही थी।
हमने यादगार के लिए थोड़े फोटू खिंचे,ओर थोड़ा गार्डन में घूम भी लिए ।पर ज्यादा कुछ देखने को था नही इसलिए हम बाहर निकल गए और बाहर निकल कर एक टपरी पर बैठकर चाय का आनंद लिया।
लेकिन, धत तेरी की ,हमारे जैसी टपरी की चाय सारे कर्नाटक में कहीं भी नही मिलती हैं।
मायूस हो हम अपनी गाड़ी पे आ गए
अब हमारी गाड़ी तेजी से मैसूर की ओर भाग रही थी।
क्रमशः...









शनिवार, 5 दिसंबर 2020

कर्नाटक डायरी#12

कर्नाटक-डायरी
#मैसूर -यात्रा
#भाग=12
#कुर्ग-यात्रा
#भाग=5
#23 मार्च 2018

कल बहुत थक गए थे इसलिए खाना खाकर सो गए थे।
आज सुबह हमारे उठने से पहले ही नाश्ता आ गया था...आज मसाला डोसा,चटनी,उड़द का वड़ा, आलू के परांठे ,आमलेट ओर केक का पीस आया था।

आज काफी हैवी नाश्ता आया था , सब भूखे भेड़ियों की तरह नाश्ते पर टूट पड़े😊😊 नाश्ते से फ्री होकर सारा समान निकालकर हम कार में बैठ गए,आज कुर्ग में हमारा आखरी दिन था तो हम कुर्ग के छोटे से बाजार में चले गए ... यहां से मैंने थोड़ा गर्म मसाला खरीदा, ओर काफी की बोतल भी खरीदी क्योंकि कुर्ग की काफी बहुत फ़ेमस है।
इतिहास:--

मडिकेरी(कुर्ग)को दक्षिण का स्कॉटलैंड कहा जाता है। यहां की धुंधली पहाड़ियां, हरे वन, कॉफी के बगान और प्रकृति के खूबसूरत दृश्य मडिकेरी को अविस्मरणीय पर्यटन स्थल बनाते हैं। मडिकेरी और उसके आसपास बहुत से ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल भी हैं। यह मैसूर से 125 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित है और कॉफी के उद्यानों के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है।

1600 ईसवी के बाद लिंगायत राजाओं ने कोडगु में राज किया और मडिकेरी को राजधानी बनाया। मडिकेरी में उन्होंने मिट्टी का किला भी बनवाया। 1785 में टीपू सुल्तान की सेना ने इस साम्राज्य पर कब्‍जा करके यहां अपना अधिकार जमा लिया। चार वर्ष बाद कोडगु ने अंग्रेजों की मदद से आजादी हासिल की और राजा वीर राजेन्द्र ने पुनर्निमाण कार्य किया। 1834 ई. में अंग्रेजों ने इस स्थान पर अपना अधिकार कर लिया और यहां के अंतिम शासक पर मुकदमा चलाकर उसे जेल में डाल दिया।

मदिकेरी का किला और महल अब   सरकारी कार्यालयों, न्यायालय और जिला जेल के रूप में बदल गए है... 

टीपू सुल्तान ने ग्रेनाइट से 18वीं शताब्दी में किले का पुनर्निर्माण करवाया था ,पहले यह किला 17 वीं शताब्दी में मुदुराजा द्वारा मिट्टी से बनाया गया था...आखिरकार, 1834 में किले पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया।

किले के अंदर महल में महात्मा गांधी पब्लिक लाइब्रेरी, महाकोटे गणेश मंदिर, क्लॉक टॉवर, सरकारी संग्रहालय और दो हाथियों की आदमकद मूर्तियाँ हैं। 

हमने होटल का हिसाब क्लियर कर के विदा ली ओर किले की तरफ चल दिये...किला नजदीक ही था अंदर हम अपनी कार द्वारा ही पहुँच गए। सामने ही खुले मैदान में हथियों कि दो आदमकद मूर्तिया देखकर हम उधर चल दिये लेकिन हथियों के स्टैच्यू के चारों ओर जंगला लगा हुआ था ,हम उसके पीछे से सीढियां चढ़कर ऊपर किले की टूटीफूटी दीवार पर चढ़ गए,बच्चे तो पूरी दीवार का एक चक्कर लगाकर आ गए मगर मैं  सिर्फ फोटू खिंचवाकर सामने दिख रहे महल को देखने चल दी,महल का काफी हिस्सा सरकारी दफ्तर में तब्दील हो चुका है कुछ हिस्सा पर्यटकों को देखने के लिए खुला था जिसमे बड़े बड़े लोहे के दरवाजे ओर दीवारों पर  भित्ति चित्र प्रमुख थे।

महल देखकर जब बाहर निकली तो 2 तोपें दिखाई दी , नजदीक ही क्लॉक भवन दिख रहा था ,ओर चर्च की भी बुर्ज दिख रही थी पर हमारे पास टाइम नही था इसलिए हम उनको देखने नही गए।
वहां से सीधे सामने दिख रहा मन्दिर देखने चल दिये।
मन्दिर से निकलकर हम वापस अपनी कार में आ गए और रिटर्न हो गए धीरे धीरे हम कुर्ग को अलविदा कह कर आगे निकल गए।
अब हम जाते जाते "हिरंगी डैम" देखने रुकेंगे।
क्रमशः...


                    क्लॉक रूम