फिर मिलूंगी कब ????
फिर मिलूंगी कब ????
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मैं तुमसे फिर कब मिलूंगी ?
कब ??? जब चन्द्रमा अपनी रश्मियाँ बिखेर रहा होगा । जब जुगनु टिमटिमा रहे होंगे । जब रात का धुंधलका छाया होगा ; जब दूर सन्नाटे में किसी के रोने की आवाज़ होगी ; या कहीं पास पायल की झंकार होगी ? या चूड़ियों की कसमसाहट ? क्या तब मैँ तुमसे मिलूंगी ?
या तीसरे पहर की वो अलसाई हुई सुबह ---
या उस सुबह में पड़ती ओंस की नन्ही नन्ही बूंदों के तले --- या दूर पनघट से आती कुंवारियों की हल्की सी चुहल के साथ-- या रात की रानी की बेख़ौफ़ खुशबु या नींद से बोझिल मेरी पलकें और उस पर सिमटता मेरा आँचल... बोलो ! फिर कब मिलूंगी तुमसे ..
सावन की मस्त फुहारों के साथ
झूलों की ऊँची उठानो के साथ पानी से भीगते दो अरमानो के साथ या हवा में तैरते कुछ सवालों के साथ क्या तब मैं तुमसे मिल पाउंगी ?
थरथराते होठों के साथ
सैज पर बिखरी कलियों के साथ मिलन के मधुर गीतों के साथ ठोलक पर थिरकती उँगलियों के साथ या बजती शहनाई की लहरियों के साथ क्या सच में ! मैं तुमसे मिल पाउंगी !
इन्हीं उधेड़े हुए कुछ पलो के साथ
कुछ गुजरी ; कुछ गुजारी यादों के साथ कुछ अनसुलझे जवाबों के साथ कुछ यू ही अलमस्त ख्यालों के साथ क्या हम फिर मिल पायेगे.... क्या हम फिर मिल पायेगे...
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