मेरे अरमान.. मेरे सपने..


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गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

याद....!!!









याद आते हो तो कितने ----
अपने -से लगते हो तुम ----
वर्ना,  हर लम्हां गुजरता हैं   ----
तुम्हारे ख्यालो में ----
चुप -सी आँखों में आज ----
फिर वही सवाल उठा ----
क्या राहत मिलेगी मुझे ----
इन बंद फिजाओ में ----?
खेर, अँधेरे  भी  भले -जीने के लिए ----
गैर, हो जाते हैं  सभी चेहरे उजालो में----
मुस्कुराओ तो भी अच्छा हैं  ----
बेरुखी भी भली तुम्हारी ----
बेअसर हैं  सभी बाते यहाँ मलालो में ----
याद आते हो तो एहसास -ऐ -ख़ुशी मिलती हैं  ----
यूँ तसल्ली भी गिरफ्तार हैं ---
सौ (१००) तालो में----???????   










शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

कशमकश !!!



" मत पूछो ऐ दुनियां वालों कैसे  मेरी  किस्मत फूटी !
अपनों ने ही मेरे बनकर मेरे प्यार की दुनियां लुटी !!"







उनके जाने से मेरे दिल का वो कोना खाली हैं 
जहाँ  सजाई थी मैनें  कभी तेरी इक तस्वीर 
तंग गलियां !सुनी दीवारे ! जंगल में पड़ी इक मज़ार !
यादों का झुरमुट हैं या गुज़रे दिनों की बहार ...

तेरे रहने से इस बे-जान हंसी ने ,
 ठहाकों  का रूप लिया था कभी ,
जमी हुई ओंस ने तब --
 पिधलना शुरू कर दिया था --
बर्फ की मानिंद इस जमी हुई रूह को 
अब, तेरे आगोश का इन्तजार रहेगा ----?

भटकती रही हूँ दर -ब -दर 
तेरे  कदमों  के निशाँ  ढूंढती  हुई 
इस भीड़ में अब कोई मुझे पुकारेगा नहीं---?

कोई गलती नहीं थी फिर भी सज़ा पा रही हूँ मैं ---
तुझसे दिल लगाया क्या यही जुर्म हुआ मुझसे ?

न मैं समझ सकी, न तुम बता सके --
जिन्दगी के ये फलसफे ..उलझकर रह गए 
उलझे हुए तारो को सुलझा सकी नहीं कभी --
इस उलझन में हम कब उलझ गए पता ही नहीं ???   

   



मेरी पेंटिंग --दर्शन !



शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

सपनो का विरोधाभास् !!!










मेरी आँखों में जो सपने पल रहे थे ---
आँख खुलते ही सब मिट्टी में दफन  हो गए ---
मेरे लिए भी थी कभी कुछ पेड़ों की छाँव ---
पर वो कट चुके तेरी नफ़रत की कुल्हाड़ी से --

मेरे दिल के बागीचे  में खिले थे प्यार के चंद फूल --
      कम्व्ख्त! वो भी किसी हसीना के गले का हार बन गए --
मैंने सोचा था आएगी पतझड़ के बाद बहारे कभी --
पर जिन्दगी की रेल-पेल में पतझड़ ही आती रही--

मुझे मिले नहीं कभी हँसते -खेलते -नाचते -गाते कांरवा--
हमेशा मिले वीरान स्टेशन ! सुनसान राहें !बेजान मेहमां --
ले सकी न सांस मैं कभी इन बन्धनों को तोड़कर --
न ये बंधन कभी मेरे गले का हार बन सके --

हर कदम पर तेरी नफरत से सामना हुआ मेरा --
प्यार मिल न सका कभी तेरी गठरियो से मुझे --
अब, तुम कहते हो 'ये नफरत से भरी गठरी  हम ढोए '--
तो तुम ही कहो ----
" कैसे हम उन सपनो को कत्ल करे ?
कैसे हम तुम्हारी नफ़रत को तिलांजलि दे ?
कैसे हम तुम्हारे दिल में प्यार का बीज बोए ?
अब, तुम ही कहो --कैसे हम खुद को दिया वचन तोड़े "?










तुम तो चले गए यह कहकर की-- 'हमे प्यार नहीं तुमसे '
पर मैं कहाँ जाऊ --
तेरे प्यार का श्रृंगार ले कर --
तेरे नाम का सिंदूर लेकर --
तेरी प्रीत की माला पहन कर -- 


इन राहो में अनेक कांटे हैं ,कही भी फूल दिखाई नहीं देते ?
चारो और हाहाकार हैं ,सुकून के दो पल दिखाई नहीं देते ?
क्या बहारे फिर से आएगी ? मगर कब ???
क्या खिजाए अब तो जाएगी ?मगर कब ???  
मौसम बदला ऋतुए बदली ..पर तू न बदल सका ---
राह जोता किए हूँ हर पल आँखों में इन्तजार लिए ... 




          
"देख ले आकर  महकते हुए जख्मो की बहार ! 
मैने  अब तक तेरे गुलशन को सजा रखा हैं !"




शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

मेरे गुरु की नगरी ~ हुजुर साहेब --पार्ट -2





तख़्त श्री सचखंड साहेब  'नांदेड ' 


गुरुद्वारा  संचखंड साहेब  


अन्दर का द्रश्य --यह खालिश सोना हैं 

हम तारीख10 सितम्बर  को  हुजुर साहेब नांदेड की यात्रा पर निकले थे --आज दूसरा दिन हैं ... मेरे साथ मेरी सहेली रेखा हैं ....

"मेरे गुरु की नगरी भाग १ --पढने के लिए यहाँ क्लिक करे "



आज  सुबह  -सुबह  हम फटाफट तैयार हुए --क्योकि आज हमें गुरुद्वारे के दर्शन  करना थे  --कल हम जा नहीं पाए --आज ही हमें दुसरे ५-७ गुरुद्वारों के भी दर्शन करने थे --तो चलते हैं  अंदर -------




अन्दर का द्रश्य ---सुबह की तैयारी चल रही हैं -- सुबह चारो दरवाजे खुल जाते हैं --स्नान कराकर गुरु का अमृत और प्रसाद का वितरण होता हैं --फिर आशा -दी - वार का पाठ होता हैं --जिसे संगत श्रद्धया  से  सुनती हैं --  कीर्तन से सारा माहौल भक्तिमयी हो जाता हैं --- अन्दर महाराज के शास्त्र रखे हैं और उनकी 'कलगी' रखी हैं..जिसे 'आपजी' अपने सर की पगड़ी में सजाते थे --रात को उनके शास्त्रों को संगत को दिखाया जाता हैं ..
    




( किसी  त्यौहार में  दरबार साहेब की रौनक .... चित्र --गूगल )





अन्दर क दरवाजा --गुरुद्वारे में चार दरवाजे हें जो सुबह और शाम को खुलते हैं इसमें किसी को अन्दर जाने की इजाजत नहीं हैं सिर्फ जत्थेदार ही जा सकते हैं -- जिन्होंने सेवा ले रखी हैं --इस समय यहाँ के जत्थेदार सरदार कुलवंत सिंह जी हैं -- जो सेवा में रहते हें--जत्थेदार  जीवन भर शादी नहीं करता ?
ऐसा  क्यो हैं  मुझे नहीं पता ? यहाँ गुरु-- शिष्य  परम्परा हैं ---जो काबिल होता हैं उसी को जत्थेदार बनाया जाता हैं जो अपने जीवन काल तक  सेवा  करता हैं --उसकी म्रत्यु के बाद दूसरा बनता  हैं---  





यह हैं  प्रसाद -घर ---यहाँ आप चाहे जितने का प्रसाद खरीदो आपको उतना ही मिलेगा चाहे आप 100 का खरीदो या 10 रु का --आपको एक समान ही मिलेगा  --


( बड़ा ही सुंदर हाथी -मेरे साथी-- दीपक हैं )


 (यह हैं गुरूद्वारे में जलती अखंड ज्योत )


(यह हैं गुरु  गोविन्द सिंहजी  का असली फोटो )
उनके चेहरे पर एक बड़ा सा मस्सा  हैं 




(यह  हैं  नगाड़ा --जो रात को अरदास के वक्त बजता हैं) 


(अन्दर की खुबसुरत सजावट --दीवारों पर सोने की कारीगरी  )


(और बाहर... दो खुबसूरत महिलाए ) 




यह हैं ऐतिहासिक बावली -- कहते हैं यहाँ रोज आज भी महाराज आकर स्नान करते हें --रात को उनके  कपडे यहाँ रखे जाते हैं जो सुबह गीले मिलते हैं -- ( मैने नहीं देखा ? ) सिर्फ सुना हैं , क्योकि यह सिर्फ सुबह ४बजे ही खुलता हैं संगत के दर्शन हेतु ....बाद में यह बंद रह्ता हैं --- 




(हजूर साहेब में मनाए  जाने वाले त्यौहार) 





(कीर्तन चल रहा हैं ---लंगर साहेब गुरुद्वारे में )



इतिहास :----


अब आपको बताती हूँ गुरु गोविन्दसिंहजी महाराज के  नांदेड आगमन की कथा--गुरूजी पंजाब छोड़कर नांदेड क्यों आए :----


" सचखंड वसे  निरंकार"   

गुरु गोविन्द सिंह जी का सम्पूर्ण जीवन (बचपन छोड़ कर )पंजाब की सरजमी पर व्यतीत हुआ --अंतिम सुनहरी यादे तख्त सचखंड श्री हजूर साहिब को अर्पित हैं भारत के कोने -कोने को अपनी पावन भेट देकर पवित्र किया --अपने माता -पिता  और चारो बच्चो को देश और कौम और धर्म की खातिर न्योछावर करने के बाद उन्होंने  दमदमा साहिब (मालवा देश )में प्रवेश किया --औरंगजेब की मौत के बाद उसके बड़े बेटे बहादुर शाह को दिल्ली के तख्त पर बैठाया जो गुरु जी का मुरीद था -- फिर आपजी दक्षिण दिशा को रवाना हो गए ..

दक्षिण दिशा जाते हुए जब वो नांदेड पहुंचे तो गोदावरी नदी के किनारे बसा यह नगर उन्हें बहुत भाया --यहाँ का  शांत वातावरण उनके मन को सुकून देने वाला था --पर यह इलाका बहुत खराब और बंज़र था  यहाँ की भूमि  उपजाऊ नहीं थी - -पर इस बंज़र भूमि को गुरूजी ने अपनी मधुर वाणी से आलोकिक किया --अपना आखरी समय उन्होंने यही गुज़ारा --संवत १६६५ कार्तिक सुदी  दूज के दिन गुरूजी ने खालसा पंथ को गुरु ग्रन्थ साहिब के चरणों में  सौप  दिया -- और गुरु की गद्धी को ग्रन्थ को सौपकर उस महान ग्रन्थ को गुरु का ख़िताब देकर आगे से गुरु परंपरा को  खत्म किया --जो गुरुग्रन्थ साहिब कहलाता हैं --सारे खालसा -पंथ को उन्होंने आदेश दिया ----

 "आगिया भई अकाल की तबै चलायो पंथ !
  सभ  सीखन  को हुकम हैं गुरु मानिओ ग्रन्थ !
गुरु ग्रन्थ को मानियो प्रगट  गुरां  की देह !
जो प्रभ को मिलबो चहै खोज शब्द मैं  लेह ! "
                                                 (पंथ प्रकाश )
   

(गुरु ग्रन्थ साहेब को गुरतागद्दी  सौपते हुए दशमेश पिता ) 


दसमेश पिताश्री गुरु गोविन्दसिंह जी का नांदेड की सरजमी के लिए  यह फरमान हैं की--- "मैं अपने हर सिक्ख का ६० साल  की आयु तक प्रतीक्षा करूँगा "---इसलिए हर गुरु के सिक्ख का यह फर्ज बनता हैं की वो अपनी भागदौड भरी जिंदगी से कुछ समय निकाल कर  इस स्थान का दर्शन करे और अपना जीवन सफल बनाए ....(शेष ..इतिहास अगली किस्त में )




"चलिए  दोपहर को बागीचे की सुंदरता  में चार चाँद लगाए" 



"तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल हैं
    जहाँ भी जाऊ ये लगता हैं तेरी महफिल हैं " 


(फूल---- आहिस्ता तोड़ो --फूल बड़े नाजुक होते हैं )


(सिर्फ तेरी कमी हैं --इस आशियाने में ?????



( बिन तेरे न इक  'पल' हो 
न बिन तेरे कभी 'कल' हो )


(" कितना हंसी हैं मौसम" ----चांदनी नहीं हैं  तो क्या ...धुप तो हैं ?


शेष अगली कड़ी में जारी ------