"मैं ओर मेरा भ्रम"
जब भी ख्यालों की खिड़की खोलती हूँ ।
तो एक तस्वीर मेरे ज़ेहन में उभरती हैं।
मैं दौड़कर उसे गले लगाने की असफल कोशिश करती हूं।
तब, वो मुझे परे थकेलकर मेरी कमजोरियों पर हंसती हैं।
मैं नशे के आलम में
उसको पुकारती हूँ,
पर वो शायद अपने कानों को बन्द कर मेरी आवाज को दूर झटक अनसुनी कर देती है।
तब मैं उसको झिंझोड़कर अपने प्यार का वास्ता देकर कुछ पल के लिए रोक लेती हु।
पर वो एक फुंकार मारकर अपने विष का ऐलान कर देती हैं।
तब मैं निडर हो,
उसके सर्फदंस को भोगकर,
फिर से उसके सानिन्द का रस भोगने के लिए,
उसके इर्द गिर्द मंडराने लगती हूँ।
तब वो अपनी बीन निकाल मुझे मदहोश करने लगती हैं।
ओर मैं उसकी बीन पर थिरकने लगती हूँ।
सर्फदंश से मदहोश हुई मैं उस स्थिति का रस भोगने लगती हूँ।
ओर चटकारे लेते हुए उस जहर को पीने लगती हूँ।
ओर तब व्याकुल हो,
विरह के गीत गाकर,
उस मूर्छित पडी नागिन को पुनः जीवित करने की कोशिश करती हूँ।
इस कोशिश में मैं स्वयं को लहूलुहान कर लेती हूं।
तब! संतुष्टि की मौन स्वीकृति देकर, आशा की एक किरण को अपने पहलू में दबा कर चिर निद्रा में विलीन हो जाती हूँ।
---दर्शन के दिल से