मैं तुमसे फिर कब मिलूंगी???
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मैं तुमसे फिर कब मिलूंगी ?
कब ???
जब चन्द्रमा अपनी रश्मियाँ बिखेर रहा होगा
या जुगनु टिमटिमा रहे होंगे
जब रात का धुंधलका छाया होगा
या दूर सन्नाटे में किसी के रोने की आवाज़ आ रही होगी ;
या फिर कहीं पास ही घुंघरुओं की झंकार होगी ।
क्या तब मैँ तुमसे मिलूंगी ?
तीसरे पहर की वो अलसाई हुई सुबह
भोर की लालिमा में चमकती ओंस की नन्ही-नन्ही बूंदे
या दूर पनघट से आती कुंवारियों की हल्की सी चुहल
या रात की रानी की बेख़ौफ़ खुशबु
या नींद से बोझिल मेरी पलकें
उस पर सिमटता मेरा आँचल...
क्या तब मैं तुमसे मिलूंगी !
सावन की मस्त फुहारों के साथ
झूले की ऊँची उड़ानों के साथ
पानी से भीगते अरमानों के साथ
या हवा में तैरते कुछ सवालों के साथ।
बोलो!क्या तब मैं तुमसे मिलूँगी ?
थरथराते होठों के साथ
सेज पर बिखरी कलियों के साथ
मिलन के मधुर गीतों के साथ
ठोलक पर थिरकती उँगलियों के साथ
या बजती शहनाई की लहरियों के साथ।
क्या सच में ! मैं तुमसे उस समय मिलुंगी ?
इन्हीं अन-सुलझे कुछ सवालों के साथ
कुछ गुजरी ; कुछ गुजर गई यादों के साथ
कुछ सुलझे हुये जवाबों के साथ
कुछ यू ही अलमस्त ख्यालों के साथ
क्या तब मैं तुमसे मिलूँगी ....?
---दर्शन के दिल से 💓
2 टिप्पणियां:
बहुत बढि़या कविता...... शानदार प्रस्तुति।
Thnx स्वाति जी👏
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