मेरे अरमान.. मेरे सपने..


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शनिवार, 25 मई 2019










मैं तुम्हे प्यार करती हूँ 
अपने अमिट प्यार से
तुम्हारे विचारो को 
अपनी अल्को में गुंथती रहती हूँ
मैं अकेली नही रहती ..
मेरी राते रातेँ --
तुम्हारी खुश्बुओ से गरमाती रहती है --सोचती हूँ -
जब मैं पराई होउंगी,तब क्या तुम्हे भुल पाउंगी 
शायद नही --
क्योकि मैं किसी को अपना सर्वस्त्र दे सकती हूँ 
अपना मन, इच्छा,जिस्म 
पर क्या मैं उसे वो 'स्वप्न' दे पाऊँगी 
जिनके 'नायक' सिर्फ तुम थे ?

मंगलवार, 8 जनवरी 2019

" प्यार के खेल निराले "
~~~~~~~~~~~~💝

मैं उन दोनों के प्यार की साक्षी थी ।
मैं न होती तो शायद कहानी न होती ?

वो महलों का शहजादा !

ये गलीयों की राजकुमारी !

जब दोनों का प्यार बढ़ा,
तो उस अहसास को,
न चाहते हुए भी मैने भांप लिया ---
(कहानी का श्री गणेश )
मुझे पता था दूरियां बहुत है ।
रास्ते कठिन है ।
क़दमों में ताकत नही ?
ओर हाथ बहुत छोटे है।


अपने रूँधे गले से पुकार भी तो नही पाई थी वो ---" साहिब ????
तब उसके आंसू के एक -एक क़तरे की मैं ही तो साक्षी थी।

उस दिन वो मासूम सी नन्ही लड़की ---
अपने घर के आंगन में चमेली के मंडवे तले सहेलियों के साथ आंख मिचौली खेल रही थी ।
ओर कुछ दूर अपनी बगिया में टहलता वो शहजादा, 
एकटक उस परी की खूबसूरती को घूंट - घूंट पी रहा था।
बरबस मेरी निगाहें उस सौन्दर्य प्रेमी से टकरा गई , 
उसने भी कोतुहल से मुझे निहारा --- उसकी आँखों मे अनगिनित सपनें कुलांचे मार रहे थे ।


उस दिन उस परालोक में मैंने भी कुछ पल हिचकौले खाये थे ।
पर वो हुश्न की मल्लिका अपनी ही मस्ती में चूर पता नही किन ख़यालों में गुम थी।
उसका ये भोला प्रहार मुझे भी अंदर तक सहला गया था।
मैं उसके प्यार की मूक साक्षी बनी टुकुर - टुकुर देखने को विवश थी।
ओर वो बेचारा दूर खड़ा विवशता से अपने हाथ मसल रहा था ---

" प्यार पर बस तो नही है मेरा लेकिन फिर भी ----
तू बता दे के तुझे प्यार कंरू या न करूं ..."


मुझे उस समय इसी गीत की पंक्तियां सुनाई दे रही थी।
और जब उसकी मूक आंखों का निमंत्रण उस सुंदरी को मिला ;
तो चोंककर उसने उधर देखा ----
 कोई उसे अजीब -सी निग़ाहों से घूर रहा था,
और वो उसके प्रवाह मे बहती जा रही थी,
मानो खुद पर उसका नियंत्रण ही न रहा हो ।

मैं उस जादू भरे संगीतमयी माहौल की इकलौती गवाह थी।
"मैं नही होती तो कहानी कैसे जवां होती !

फिर रात के साथ बात का सिलसिला जो शुरू हुआ तो महीनों बीत गए कुछ पता ही नही चला ।
न खत्म होने वाला ये सिलसिल आखिर कब तक चलता ; 
एक दिन बादशाह के कानों तक इनके इश्क़ के चर्चे पहुंच ही गए 
और वही हुआ जो अक्सर होता है । 
शहजादे के इश्क पर पहरे ओर राजकुमारी के पैरों में बेड़िया ?
चांदी की बेड़ियाँ !!!
जिन्हें अबला पहन तो सकती है पर उतार कर फैक नही सकती।

मैं इस कहानी में आ तो गई थी पर, उनको मिलाना शायद मेरे भी बस में नही था।
वो कहते है ना, जिनको मिलना हो तो कायनात भी मिलाने में कोई कसर नही छोड़ती ।
 लेकिन, यहां बात उल्टी थी---
 उनके मुकद्दर में मिलना मुमकिन ही नही था ,
तो वो फिर कैसे मिल सकते थे ?
ओर फिर वो नदी के दो पाट की तरह साथ - साथ रहे ,
 साथ तो थे पर जुदा - जुदा ..

कहानी यहि खत्म हुई पर सम्पूर्ण नही ?
क्या हर कहानी में नायक ओर नायिका का मिलन सम्भव होना जरूरी है ?
शायद "हा" भी शायद "ना" भी ????
और उनकी भी कहानी अधूरी रह गई !!!!!!!!!
--- दर्शन के दिल से @