💜 जीवन की विभीषिका 💕💕
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अपने चेहरेे पर झूठ का मख़ौटा चढ़ाती हूँ
दिल के अरमानों को हर दिन दफ़नाती हूँ
अपनी उड़ानों के पंख कतरते हुए,
रोज सूली पर चढ़ जाती हूँ....!
दुखों के सैलाब को आग़ोश मेँ छुपाती हूँ
रोज़ ख़ुशी के आंसू सौगात में लाती हूँ
दिल के जख्मो को मरहम लगाती हू
सन्नाटें में खूब चीखती चिल्लाती हूँ
और हर दिन यू ही सूली पर चढ़ जाती हूँ....!
रातों की रौनक बनने को संवरने लग जाती हूँ
भोर की रश्मियों से चेहरे को छुपाती हूँ
चाँद की चाँदनी में कालिख को मिटाती हूँ
फिर चूल्हे की लकड़ियों को सुलगाते हुए
भरी हुई आँखों से सूली पर चढ़ जाती हूँ ....!
मायूसीयो के नकाब पर
हंसी का लबादा ओढ़कर
महफ़िल की जान बन जाती हूँ
गजरे की खुशबु से तन का पसीना पोंछकर
खुशबूदार गिलौरी से होठों को सजाती हूँ
सैंया की सेज पर करहांटें भूलकर
खुद को समर्पित करते हुए सूली पर चढ़ जाती हूँ।
(यहाँ "सूली पर चढ़ने'' का मतलब जिंदगी की जटिलता भरे रोजमर्या कामों से हैं )
---दर्शन कौर ।
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